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२०१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
क्षुधा व्याधि से पीड़ित होकर अब तक पाए हैं बहु कष्ट । ज्ञान भाव के सुचरु प्राप्त कर भव पीड़ा कर दूँगा नष्ट ||
राधिका सारा जग ही अनादि से द्रह में डूबा । भव क्रूर मध्य दुख पाए किन्तु न ऊबा ॥ अब तो मैं प्रभु चिद्रूप शुद्ध ध्याऊंगा दृढ़ रस्सी द्वारा मैं ऊपर आऊंगा || चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥२०॥
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्यं नि. ।
(२१). शुद्धचिद्रूपसदध्यानादन्यत्कार्य हि मोहजं ।
तस्माद् बंधसस्ततो दुःखं मोह एव ततो रिपुः ||२१||
अर्थ- संसार में सिवाय शुद्धचिद्रूप के ध्यान के जितने कार्य है सब मोहज मोह के द्वारा उत्पन्न है। सब की उत्पत्ति मैं प्रधान कारण मोह है। तथा मोह से कर्मो का बंध और उससे अनन्त क्लेश भोगने पड़ते हैं, इसलिये सबसे अधिक जीवों का बैरी मोह ही है। २१. ॐ ह्रीं दुःखरूपमोहरिपुरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अबन्धोऽहम् । राधिका
चिद्रूप शुद्ध का ध्यान छोड़ जो कृत वे सारे ही दुष्कृत्य मोह आवृत हैं भव का प्रधान कारण यह मोह बंध है सर्वाधिक दुख का दाता कर्म द्वंद है ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊं । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥२१॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्यं नि. ।