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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन
दर्शन ज्ञान वीर्य सुख मंडित पद अनर्घ्य अविराम वरूं । पुण्य भाव के अर्घ्य नष्ट कर ज्ञान भाव के अर्घ्य धरूं ॥
(१९)
मोह एवं परं बैरी नान्यः कोऽपि विचारणात् । ततः स एव जेतव्यो बलवान् धीमताऽऽदरात् ॥१९॥
अर्थ- विचार करने से मालूम हुआ है कि यह मोह ही जीवों का अहित कने वाला महा बलवान बैरी है। इसी के अधीन हो मनुष्य नाना प्रकार के क्लेश भोगते रहते हैं। इसलिये जो मनुष्य विद्वान हैं, आत्मा के स्वरूप के जानकार है उन्हें चाहिये कि वे सबसे पहिले इस मोह को जीतें अपने वश में करें ।
१९. ॐ ह्रीं बलवान्मोहबैरीरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
ज्ञानबलस्वरूपोऽहम् ।
सम्यक् विचार करने पर मैंने जाना I यह मोह अहित कर बैरी हैं यह माना ॥ इसके अधीन जो होते क्लेश भोगते । जो मोह जीत लेते वे सौख्य भोगते ॥ चिद्रूप शुद्ध ही शिव सुखकारी पाऊ । आनंद अतीन्द्रिय धारा ह्रदय सजाऊं ॥१९॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागममाय अर्घ्य नि. ।
(२०)
भवकूपे महोहपंकेऽनादि गतं जगत् ।
शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानरज्वा सर्व समुद्धरे ॥२०॥
अर्थ- यह समस्त जगत अनादि काल से संसाररूपी विशाल कूप के अन्दर महामोह रूपी कीचड़ में फंसा हुआ है इसलिये अब मैं शुद्धचिद्रूप के ध्यानरूपी मजबूत रस्सी के द्वारा उसका उद्धार करूंगा ।
२०. ॐ ह्रीं भवकूपगतमहामोहपंकरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानरज्जूस्वरूपोऽहम् ।