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१८५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
यदि पीड़ा उत्पन्न न हो तो क्योंकर करे विषय सेवन । पंचेन्द्रिय के विषय जीतने वाला ही है धन धन धन ॥ निश्चय चरणानुयोग का चंदन मुझको प्रभु भाया । भव ज्वर कैसे क्षय होता जब भाया मुझे पराया ॥ चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप विनाशनाय
चंदनं नि. ।
निश्चय चरणानुयोग के तंदुल न मुझे प्रभु भाए । अक्षय पद को पाने के श्रम कभी न मुझे सुहाए || चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी ।
अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं
अज्ञानी ॥
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्त अक्षतं नि. ।
निश्चय चरणानुयोग के पुष्पों की माला छोड़ी । पर परिणति दुखदायी से हे नाथ आत्मा जोड़ी ॥ चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. ।
निश्चय चरुणानुयोग के नैवेद्य न मैंने पाए । औदयिक भाव के कारण ना क्षुधारोगं विनशाए || चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि. ।