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१८६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी नवम अध्याय पूजन इन्द्रिय विषयों को जीते बिन ज्ञान बिना जो करता ध्यान। यह भव पर भव दोनों को ही बिगाड़ता है मूढ़ अजान ॥
निश्चय चरणानुयोग के दीपक ना कभी जलाए । मिथ्यात्व मोह के तम ही भव वर्धक सदा सुहाए || चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. ।
निश्चय चरणानुयोग की ध्रुव धर्म धूप ना भायी । आठों कर्मों के क्षय की निज बुद्धि सकल बिसरायी ॥ चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥ ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. ।
निश्चय चरणानुयोग के आचरण बिना सुख कैसा । शिवफल बिन रहा मूढ़ मैं भव फल वाले तरु जैसा || चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय
फलं नि. ।
निश्चय चरणानुयोग का भी अर्घ्य न कभी बनाया । पदवी अनर्घ्य पाने का अवसर भी सदा गंवाया ॥ चिद्रूप शुद्ध की कथनी ऊपर ही ऊपर जानी । अंतर में नहीं उतारी ऐसा हूँ मैं अज्ञानी ॥
ॐ ह्रीं नवम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि. ।