________________
१७३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान आत्म वार्ता जहाँ न होती हो वह ग्राम छोड़ने योग्य ।
आत्म वार्ता जहाँ सदा होती हो वह है रहने योग्य || ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(७) तावत्तिष्ठति चिद्भूमौ दुर्भद्याः कर्मपर्वताः ।
भेदविज्ञानवजं न यावत्पतति मूर्द्धनि ||७|| अर्थ- आत्मा रूपी भूमि में कर्म रूपी अभेद्य पर्वत तभी तक निश्चल रूप से स्थिर रह सकते हैं। जब तक भेद विज्ञान रूपी वज्र इनके मस्तक पर पड़ कर इन्हें चूर्ण नहीं कर डालता । ७. ॐ ह्रीं दुर्भेद्यकर्मपर्वतरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
विज्ञानाचलोऽहम् ।
छंद विधाता आत्मारूप धरती पा कर्म रूपी अभेद पर्वत । तभी तक सुदृढ़ निश्चल है तभी तक सर्व विधि रक्षित॥ किन्तु जब भेद ज्ञानी वज्र इसके शिखर पर गिरता । उसी क्षण चूर्ण हो जाता कर्म पर्वत नहीं रहता ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥७॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(८)
दुर्लभोऽत्र जगन्मध्ये चिद्रूपरुचिकारकः ।
ततोऽपि दुर्लभं शास्त्रं चिद्रूपप्रतिपादकम् ॥८॥ अर्थ- जो पदार्थ चिद्रूप में प्रेम कराने वाला है, वह संसार में दुर्लभ है। उससे भी दुर्लभ चिद्रूप के स्वरूप का प्रतिपादन करने वाला शास्त्र है। ८. ॐ ह्रीं चिद्रूपरुचिकारकवस्तुदुर्लभत्वविकल्परहितसमलस्वरूपशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अद्वैतस्वरूपोऽहम् ।