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१७२ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन यदि प्रतिकूल दशा मुझको होती है तो अति उत्तम है | वह संसार समुद्र पार करने का कारण सक्षम है ||
परम कल्याण करता है परम सुख का प्रदाता है । सतत निज आत्मा का ध्यान उत्तम शान्ति दाता है | शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ||५|| ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
केचित्प्राप्य यशः सुखं वरवधूं रायं सुतं सेवकंस्वामित्वं वरवाहनं बलसुहृत्पांडित्यरूपादिकम् । मन्यन्ते सफलं स्वजन्म मुदिता मोहाभिभूता नरा
मन्येऽहं च दुरापयात्मवपुषो ईप्त्या भिदः केवलम् ॥६॥ अर्थ- मोह के मद में मत्त बहुत से मनुष्य कीर्ति प्राप्त होने से ही अपना जन्म धन्य समझते है। अनेक इंद्रिय जन्य सुख सुन्दर स्त्री धन पुत्र उत्तम सेवक स्वामीपना, और उत्तम वाहनों की प्राप्ति से अपना जन्म सफल मानते हैं। और बहुतों को बल उत्तम मित्र विद्वत्ता
और मनोहर रूप आदि की प्राप्ति से संतोष हो जाता है। परन्तु मैं बड़ी कठिनाई से प्राप्त होने वाले आत्मा और शरीर के भेद विज्ञान से अपना जन्म सफल मानता हूं । ६. ॐ ह्रीं यशसुखवरवधूरायसुतसेवकादिमोहरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानयशस्वरूपोऽहम् | . मोह पद मत्त नर लघु कीर्ति पाकर धन्य हो जावे । इन्द्रियाधीन सुख स्त्री धनादिक पुत्र जब पाते ॥ भवन स्वामी बहुत सेवक सवारी आदि पाते हैं । जन्म अपना सफल कर धन्य सुख संतोष पाते हैं | किन्तु अब आत्मा अरु देह को अति भिन्न जाना है । भेद विज्ञान भूषित हो सफल यह जन्म माना है || शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥६॥