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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन
वस्त्र खून से रंगा हुआ तो नहीं खून से धुल सकता । मोक्ष द्वार भी मोक्ष मोक्ष कहने से कभी न खुल सकता ॥
कराए प्रेम निज चिद्रूप से वह वस्तु जग दुर्लभ । शुद्ध चिद्रूप दरशाए शास्त्र वह है अधिक दुर्लभ ॥ शास्त्र भी हो प्रकट लेकिन प्राप्ति गुरु की महा दुर्लभ । उत्तरोत्तर सर्व दुर्लभ है ज्ञान निज का परम दुर्लभ ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥८॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(९)
ततोऽपि दुर्लभो लोके गुरुस्तदुपदेशक: ।. ततोऽपि दुर्लभं भेदज्ञानं चिंतामणिर्यथा ॥९॥
अर्थ- यदि शास्त्र भी प्राप्त हो जाय, तो चिद्रूप के स्वरूप का उपदेशक गुरु नहीं मिलता इसलिये उससे गुरु की प्राप्ति दुर्लभ हैं, गुरु भी प्राप्त हो जाय तो जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति दुर्लभ है उसी प्रकार भेद विज्ञान की प्राप्ति दुष्प्राप्य है । ९. ॐ ह्रीं दुर्लभभेदज्ञानत्वविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । ज्ञानचिन्तामणिस्वरूपोऽहम् ।
सुगुरु भी प्राप्त हो जाए भेद विज्ञान है दुर्लभ । कि जैसे रत्न चिन्तामणि उसी विधि भान निज दुर्लभ || शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है । शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ||९||
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(90)
भेदो विधीयते येन चेतनाद्देहकर्मणोः ।
तज्जातविक्रियादीनां भेदज्ञानं तदुच्यते ॥१०॥
अर्थ- जिसके द्वारा आत्मा से देह और कर्म का तथा देह एवं कर्म से उत्पन्न हुई विक्रियाओं का भेद जाना जाय, उसे भेद विज्ञान करते हैं ।