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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान भासित होते हैं अनुकूल कल्पना से जो भी अनुकूल । जो प्रतिकूल कल्पना से भासित हैं वे होते प्रतिकूल || शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अदभुत अरु अलौकिक है ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥१॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।
(२) स्वर्ण पाषाणसूताद्वसनमिव मलात्ताम्ररूप्यादि हेम्नोवा लोहाादग्निरिक्षो रस इह जलवत्कर्दमात्केकिपक्षात् । तानं तैलं तिलादेः रजतमिव किलोपायतस्ताम्रमुख्यात्
दुग्धानीरं घृतं वा क्रियत इव पृथक् ज्ञानिनात्मा शरीरात् ॥२॥ अर्थ- जिस प्रकार स्वर्ण पाषाण से सोना भिन्न किया जाता है। मैल से वस्त्र सोने से तांबा चांदी आदि पदार्थ लोह से अग्नि, ईख से रस कीचड़ से जल केकी (मयूर) के पंख से तांबा तिल आदि से तैल तांबा आदि धातुओं के चांदी और दूध से जल एंव घी जुदा कर लिया जाता है। उसी प्रकार जो मनुष्य ज्ञानी है। जड़ चेतन का वास्तविक ज्ञान रखता ह। वह शरीर से आत्मा को जुदा कर पहचानता है । २. ॐ ह्रीं शरीरादिपृथकात्मज्ञानविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
नित्यशुद्धस्वरूपोऽहम् । स्वर्ण पाषाण से सोना अलग जैसे किया जाता । स्वर्ण को ताम्र आदिक से प्रथक विधि से लिया जाता || मैल से वस्त्र को अरु ईख से रस को प्रथक करते । कीच से नीर तिल से तेल पथ से जल प्रथक करते ॥ इसी विधि जो मनुज ज्ञानी वास्तविक ज्ञान रखता है । देह से भिन्न आत्मा को जान बहुमान करता है !! शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥२॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।