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१६८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन प्रथम बार जब समकित पाता मोक्ष स्वपद रक्षित होता। कोई रोक नहीं पाता है सिद्ध स्वपद निश्चित होता || दशलक्षण व्रत अर्घ्य बनाऊं। शाश्वत पद अनर्घ्य निज पाऊं।
परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं। ज्ञान भावना उर में धारूं || ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि. । . अर्ध्यावलि
अष्टम अधिकार शुद्ध चिद्रूप की प्राप्ति के लिए भेद विज्ञान की आवश्यकता का वर्णन
(१) छेत्रीसूचीक्रकचपवनैः सीसकाग्न्यूषयंत्रस्तुल्या पाथ:कतकफलवद्धंसपक्षिस्वभावा । शस्त्रीजायुस्वधितिसदृशा टंकवैशाखवता
प्रज्ञा यस्योदद्भवति हि भिदे तस्य चिद्रूपलब्धिः ॥१॥ अर्थ- जिस महानुभाव की बुद्धि छैनी सूई आरा पवन सीसा अग्नि ऊषयंत्र (कोलू) जल के लिए कतकफल (फिटकरी) हंसपक्षी तथा छुरी जायु दांता टांकी और वैशाख के समान जड़ और चेतन के भेद करने में समर्थ हो गई है। उसी महानुभाव को चिद्रूप की प्राप्ति होती है। १. ॐ ह्रीं टङ्कवैशाखादिसमप्रज्ञाविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अक्षयज्ञानवैभवस्वरूपोऽहम् ।
छंद विधाता मनुज की बुद्धि छैनी सम सुई आरा पवन सम है । अग्नि कोल्हू कतकफल हंस टांकी क्रकच के सम है || प्रथक करके मिलावट को शुद्धि को प्राप्त ज्यों करती । उसी विधि देह होती प्रथक आत्मा शुद्धता वरती ॥