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१६७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
फिर वेदक समकित पाता है फिर क्षायिक हो जाता है । क्रमक्रम से परिवर्त्तन अपने घटा घटा सुख पाता है ॥
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसातरताप विनाशनाय चंदनं नि. ।
दशलक्षण स्वधर्म अक्षत ले । अक्षय पद पाऊं निज बल ले । परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं । ज्ञान भावना उर में धारूं ॥
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अक्षय पद प्राप्त अक्षतं नि. ।
दशलक्षण स्वधर्म उर में धर । महाशील गुण पाऊं सत्वर । परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं । ज्ञान भावना उर में धारूं ॥
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय कामबाण विनाशनाय पुष्पं नि. ।
दशलक्षण स्वधर्म अनुभव मय । क्षुधा व्याधि हर लेता दुखमय परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं । ज्ञान भावना उर में धारूं ॥
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय क्षुधारोग विनाशनाय
नैवेद्यं नि. ।
दशलक्षण स्वधर्म के दीपक । केवल ज्ञान स्वरूप प्रदीपक। परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं । ज्ञान भावना उर में धारूं ॥ ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार
विनाशनाय दीपं नि. ।
दशलक्षण की धर्म धूप हो । कर्मनाश का श्रम अनूप हो । परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं । ज्ञान भावना उर में धारूं ॥
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्टकर्म विनाशनाय
धूपं नि. ।
दशलक्षण का फल शिवमय है। महामोक्ष फल ज्योतिर्मय है ।
परम शुद्ध चिद्रूप निहारूं । ज्ञान भावना उर में धारूं ॥
ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि. ।