________________
१७० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी अष्टम अध्याय पूजन दोनों ही कल्पना गर्त हैं है निषेध करने के योग्य । अतः विचार वान प्राणी काह, शोक है पूर्ण अयोग्य ||
देशं राष्ट्र पुराचं यवनजनकुलं वर्णपक्षं स्वकीयज्ञातिं संबंधिवर्ग कुलपतिजनकं सोदरं पुत्रजाये । देहं हद्वाग्विभावान् विकृतिगुणविधीन् कारकादीनि भित्वा
शुद्ध चिदरूपमेकं सहजगुणनिधं निर्विभागं स्मरामि ॥३॥ अर्थ- देश राष्ट्र पुर गावं धन वन जनसमुदाय ब्राह्मण आदि वर्णो का पक्षपात जाति संबंधी कुल परिवार माता पिता भाई पुत्र स्त्री शरीर हदय और वाणी ये सब पदार्थ विकार के करने वाले हैं। इनको अपना मान कर स्मरण करने से ही चित्त शुद्धचिद्रूप की ओर से हट जाता है। चंचल हो उठता है। तथा मैं कर्ता और करण आदि हूं इत्यादि कारकों के स्वीकार करने से भी चित्त में चल विचलता उत्पन्न हो जाती है। इसलिये स्वभाविक गुणों के भंडार शुद्धचिद्रूप को ही मैं निर्विभाग रूप से कर्ता करण का कुछ भी भेद न कर स्मरण मनन ध्यान करता हूं। ३. ॐ ह्रीं देशराष्ट्रादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
.. ज्ञानसाम्राज्यस्वरूपोऽहम् । देह पुर ग्राम धन परिवार का जो पक्ष है भीतर । देह वाणी ह्रदय आदिक विकारी भाव है दुखकर || इन्हें जब मानता अपना तभी बहु दुख उठाता है । ध्यान चिद्रूप का करता तभी यह सुख उठाता है ॥ परांये द्रव्य को अपना समझ जो चल विचल होता । गुणों का सिन्धु निज चिद्रूप पाकर वह सुखी होता ॥ शुद्ध चिद्रूप का विज्ञान अद्भुत अरु अलौकिक है ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त जग में सर्व लौकिक है ॥३॥ | ॐ ह्रीं अष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. ।
स्वात्मध्यानामृतं स्वच्छं विकल्पानपसार्यसत् । विपति क्लेशनाशाय जलं शैवालवत्सुधीः ॥४॥