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१५९ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता विकल्प से रहित अभेद अखंड महान । निज अनर्घ्य पद महिमाशाली ही कहलाता है निर्वाण ॥ किसी प्रयोजन वश इस पर्वत से जब यह नीचे आए | तब फिर नय व्यवहार आश्रय ले निज साधन अपनाए || परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ |
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ॥१५॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१६) . याता यांति च यास्यंति ये भव्या मुक्ति संपदं ।
आलंव्य व्यवहारं ते पूर्व पश्चाच्च निश्चयम् ||१६|| अर्थ- जो महानुभाव मोक्षरूपी संपत्ति को प्राप्त हो गये, हो रहे हैं, और होयेंगे। उन सबने पहिले व्यवहारनय का अवलंबन किया है। १६. ॐ ह्रीं स्वानन्दवैभवस्वरूपाय नमः ।
आत्मभूस्वरूपोऽहम् । जिनने पायी मुक्ति संपदा पाते हैं या पाएंगे । वे व्यवहारालंबन पहिले लेते हैं सुख पाएँगे ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ ।
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ॥१६॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अयं नि. ।
(१७) कारणेन बिना कार्य न स्यात्तेन बिना नयं ।
व्यवहारं कदोत्पत्तिर्निश्चयस्य न जायते ॥१७॥ अर्थ- क्योंकि बिना कारण के कार्य कदापि नहीं हो सकता। व्यवहारनय कारण है और निश्चय नय कार्य है। इसलिये बिना व्यवहार के निश्चय भी कदापि नहीं हो सकता । १७. ॐ ह्रीं कारणकार्यविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अक्षयचित्स्वरूपोऽहम् ।
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