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________________ १५८ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन आत्म दीप्ति की अखंड धारा का समुद्र मेरे भीतर । राग आग को क्षय करने में प्रभु समर्थ हूं महा प्रखर || परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥ १३ ॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१४) आरुह्य शुद्धचिद्रूपध्यानपर्वतमुत्तमम् । तिष्ठेद् यावत्त्यजेत्तावद् व्यवहारावलम्बनम् ||१४| अर्थ- परन्तु ज्यों ही शुद्धचिद्रूप के ध्यानरूपी विशाल पर्वत पर चढ़कर वह निश्चय रूप से विराजमान हो जाता है, उसी समय व्यवहारनय का सहारा सर्वथा छोड़ देता है । १४. ॐ ह्रीं बोधमन्दराचलस्वरूपाय नमः | ब्रह्मचंलस्वरूपोऽहम् । ज्यों ही यह व्यवहार सुनय पर्वत पर निज बल चढ़ जाता। तब व्यवहारालंबन तज देता निश्चय में आ जाता ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥१४ ॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. । (१५) शुद्धचिद्रूपसद्ध्यानपर्वतादवरोहणम् । यदान्यकृतये कुर्यात्तदा तस्यावलम्बनम् ||१५|| अर्थ- यदि कदाचित् किसी अन्य प्रयोजन के सिये शुद्धचिद्रूप के निश्चय ध्यानरूपी पर्वत से उतरना हो जाय, ध्यान करना छोड़ना पड़े तो उस समय भी व्यवहारनय का नियम से अवलम्बन रक्खे। उस समय यदि व्यवहारनय का अवलंबन न होगा तो भ्रष्टपना आ सकता है । १५. ॐ ह्रीं शुद्धचिद्रूपपर्वतस्वरूपाय नमः । सदानन्दस्वरूपोऽहम् |
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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