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१६० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन
आत्म जागरण के अधिपति तो परम संयमी मुनि होते । भवाताप हरते क्षण भर में त्रिलोकाग्र के पति होते ॥
बिन कारण के कार्य न होता नय व्यवहार कारण जानो । निश्चय नय है कार्य इसे तुम भली भांति से पहचानो || बिन व्यवहार नहीं है निश्चय निश्चय बिन व्यवहार नहीं । अटल नियम यह आगम का है कारण कार्य सुमेल यही ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ ।
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥१७॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१८)
जिनागमे प्रतीतिः स्याज्जिनस्याचरणेऽपि च । निश्चयं व्यवहारं तन्नयं भज यथाविधि ॥१८॥
अर्थ- व्यवहार और निश्चय नय का जैसा स्वरूप बतलाया है। उसी प्रकार उसे जानकर, उनका इस रीति से अवलंब करना चाहिये। जिससे कि जैन शास्त्रों में विश्वास और भगवान जिनेन्द्र से उक्त चारित्र में भक्ति बनी रहे ।
१८. ॐ ह्रीं जिनागमप्रतीतिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
चारित्रगुणसंपन्नोऽहम् ।
नय व्यवहार और निश्चय का जो स्वरूप बतलाया है । उसे जान अवलंबन द्वय का समय समय जतलाया है ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ । परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ||१८|| ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्यं नि. ।
(१९)
व्यवहारं बिना केचिन्नष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित्केवलव्यवहारतः ||१९||
अर्थ- अनेक मनुष्य तो संसार में व्यवहार का सर्वथा परित्याग कर केवल शुद्धनिश्चयनय के अवलंबन से नष्ट भ्रष्ट हो जाते हैं। और बहुत से निश्चयनय को छोड़कर केवल