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१५१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्ध एक सम्यक् स्वरूप मैं निज गुण वैभव से संपन्न । गुण अनंत का स्वामी हूं मैं रंच मात्र भी नहीं विपन्न || जब तक है व्यवहार .जगत का तब तकहै अशुद्ध चिद्रूप। निश्चयाश्रित जो मुनि होते दिखता उन्हें शुद्ध चिद्रूप ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ ।
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥२॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(३) चिद्रूपे तारतभ्येन गुणस्थानाच्चतुर्थतः ।
मिथ्यात्वादधुदयाद्याख्यमलापायाद् विशुद्धता ॥३॥ अर्थ- मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध मान लोभ के उदयादि रूप मल का अभाव होने के कारण चौथे गुणस्थान से चिद्रूप में तरतम भाव से विशुद्धि उत्पन्न होती है । ३. ॐ ह्रीं मिथ्यात्वमलरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अमलश्रद्धास्वरूपोऽहम् ।
ताटक चौथे गुणस्थान में ज्यों मिथ्यात्वादिक मल क्षय होते । त्यों चिद्रूप विशुद्धि प्राप्त कर आगे भी निर्मल होते || बिन मिथ्यात्वादिक मल नाशे नहीं शुद्ध होता चिद्रूप । जब हो जाता पूर्ण शुद्ध यह फिर न कभी होता चिद्रूप ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ |
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ॥३॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(४) मोक्षस्वर्गार्थिनां पुंसां तात्विकव्यवहारिणाम् ।
पन्थाः पथक् पृथक् रूपो नागरागारिणामिव ॥४॥ | अर्थ- जिस प्रकार जुदे जुदे नगर के जान वाले पथिकों के मार्ग जुदे जुदे होते हैं। उसी