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१५० श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी सप्तम अध्याय पूजन समकित बिन जो संयम धरता वह भ्रमण चुतर्गति करता है । कर्मों की एक प्रकृति का भी वह कभी नाश ना करता है ||
अर्ध्यावलि
सप्तम अध्याय
शुद्ध चिद्रूप के स्मरण में नयों के अवलंबन का वर्णन
(9)
न यामि शुद्धचिद्रूपे लयं यावदहं द्दढ़म् ।
न मुंचामि क्षणं तावद् व्यवहारावलम्बनम् ||१||
अर्थ- जब तक मैं दृढ़ रूप से शुद्धचिद्रूप में लीन न हो जाऊं तब तक मैं व्यवहारनय का सहारा हीं छोड़ सकता। व्यवहारनय को अवश्य काम में लाऊंगा । १. ॐ ह्रीं व्यवहारावलंबनविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
स्वावलम्बोऽहम् ।
ताटंक
जब तक दृढ़ता से चिद्रूप शुद्ध में लीन न हो जाऊँ । तब तक नय व्यवहार न छोडूं जबतक निश्चय ना पाऊं ॥ परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति का मुझको अब विश्वास हुआ ।
परम ज्ञान का सुमुद्र पाया निज में आज निवास हुआ ||१ || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(२)
अशुद्धं किल चिद्रूप लोके सर्वत्र दृश्यते ।
व्यवहारनयं श्रित्वा शुद्ध बोधदृशा क्वचित् ॥२॥
अर्थ- व्यवहारनय के अवलंबन से सर्वत्र संसार में अशुद्ध ही चिद्रूप दृष्टिगोचर होते हैं। निश्चयनय से शुद्ध तो भेदज्ञान दृष्टि द्वारा कहीं किसी आत्मा में ही दीखता है । २. ॐ ह्रीं शुद्धबोधस्वरूपाय नमः ।
नित्यशुद्धोऽहम् । वीरछंद