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१४९ ___ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जब निज परिणति जागे उर में तो फिर संयम सुखदायी है। जो स्वपर विवेक जगा उर में वह सदा सौख्य शिवदायी है |
शाश्वत स्वज्ञान .दीपक का पाया मैंने उजियारा । अज्ञान भाव क्षय करता मिट जाता भ्रम अंधियारा || चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं ॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोहन्धकार विनाशनाय दीपं नि. ।
निज ध्यान धूप अति पावन है प्रभु अब मैंने पायी । कर्मो के क्षय करने को निज की चर्चा ही भायी ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अष्ट कर्म विनाशनाय धूपं नि ।
जिनपद निज पद में अंतर अब तक था मैंने माना । जब अंतर दूर हुआ तो शिवफल ही निज फल जाना ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं || ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि ।
शुभ कर्मो के अर्यों से आरती सदैव उतारी । पदवी अनर्घ्य पाने की अब आयी मेरी बारी ॥ चिद्रूप शुद्ध की महिमा निज अंतरग में लाऊं ।
अब काल लब्धि आयी है तो करणलब्धि भी लाऊं ॥ ॐ ह्रीं सप्तम अधिकार समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय फलं नि. ।