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________________ १४६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन तिरोभूत श्रद्धान कर रहे तिरोभूत करते जो ज्ञान । तिरोभूत चारित्र कर रहे कैसे पा सकते निर्वाण ॥ पर समयी पर भव में जाता भ्रम भ्रम भव दुख पाता है। निज समयी स्व समय में थित हो शाश्वत शिव सुख पाता है। ज्ञान मूर्ति हूँ चिदानंद हूँ वीतराग हूँ शुद्ध स्वरूप । अणु भर भी तो राग नहीं है मेरे भीतर है चिद्रूप || ईधन को पाकरके अग्नि जला करती है अपने क्रम । ईधन के अभाव में हो जाती प्रशान्त यह अटलनियम || यह मोहाग्नि महान विकट है नित प्रति बढ़ती जाती है। असमय समय नहीं बुझती पा ज्ञान स्वयं बुझ जाती है || समकित के नन्हें विरवे को अनुभव रस जल से सींचो। शुद्ध ज्ञान तरु को अपने तत्त्वाभ्यास जल से सींचो || . तरु चारित्र उगेतो वहवैराग्य नीर से ही सीचो । रत्नत्रय के महा वृक्ष को नीर तपस्या से सीचो | यही मोक्ष की कला तुम्हारे भीतर पड़ी हुई पावन । इसका नित उपयोग करो तो पाओ शिवसुख मन भावन॥ एक शुद्ध चिद्रूप भावना त्रिभुवन में है मंगलकार । सर्व सौख्य कल्याण प्रदायक महिमामयी महान अपार || ॐ ह्रीं षष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णार्घ्य नि. । आशीर्वाद दोहा परम शुद्ध चिद्रूप के गाओ अब तो गीत । ध्येय बना स्व स्वभाव को करो उसी से प्रीत ॥ इत्याशीर्वाद :
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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