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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान जो परमार्थ आश्रय लेते वे करते कर्मो का नाश । पर व्यवहार प्रवर्तन करने वाले कर्म न करते नाश ||
महाअर्घ्य
गीत दिपाल रागादि भाव मे रे कोई नहीं लगते है । चेतन के जागते ही तत्काल ये भगते हैं | सोया हैं मोह नींद में चेतन अनादि से । चारों कषाय के दलं आकर इसे ठगते हैं ॥ ये भागते हैं विषय चोर निमिष मात्र में । जब शुद्ध भाव चेतन के ह्रदय में जगते हैं | आनंद अतीन्द्रिय की धारा भी होती प्राप्त . अनुभव स्व रस के भीतर आनंद से पगते हैं | चिद्रूप शुद्ध का ही जो ध्यान लगाते हैं । कितना ही डिगाओ वे बिलकुल नहीं डिगते हैं |
दोहा ... ज्ञान भावना उदधि है निज चेतन चिद्रूप ।
महाअर्घ्य अर्पण करूं लखू न पर का रूप ॥ ॐ ह्रीं षष्टम अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय महाअर्घ्य नि. ।
जयमाला
वीरछंद एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ भी करने में असमर्थ । सब अपना अपना करते हैं अपने में है पूर्ण समर्थ ॥ धर्म श्रेष्ठ मंगल कारी है सम्यक् दर्शन जिसका मूल | यह अनादि मिथ्यात्व भाव ही अज्ञानी जीवों की भूल || स्थित प्रज्ञ जीव होता है तो विष अमृत बन जाता । पर में थित होता है तो फिर अमृत भी विष हो जाता ॥