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१३६ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन एक शुद्ध परमार्थ समय है यही केवली मुनि ध्यानी । जो स्वभाव में सुस्थित मुनि है वह निर्वाण रूप ज्ञानी ॥ द्रव्य भाव से इस जड़ तन में जब तक मेरा आत्मा हो। ह्रदय कमल में एक शुद्ध चिद्रूप सदा ही उत्तम हो || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम ।
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥६॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(७) दृश्यंते तीव निःसारा क्रिया वागंगचेतसाम् ।
कृतकृत्यत्वतः शुद्धचिद्रूपं भजता सता ||७|| . अर्थ- मैं कृतकृतत्य हो चुका हूं। संसार मे मुझे करने के लिये कुछ भी काम बाकी नहीं रहा हैं; क्योंकि मैं शुद्धचिद्रूप के चिन्तवन में दत्त हूं। इसलिये मन वचन और शरीर की अन्य समस्त क्रियाएं मुझे अत्यन्त निस्सार मालूम पड़ती है। उनमें कोई सार दृष्टिगोचर नहीं होता । ७. ॐ ह्रीं शरीरादिनिःसारक्रियारहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
कृतकृत्योऽहम् ।
वीरछंद कृतकृत्य है अब करने को कोई काम नहीं है शेष । परम शुद्ध चिद्रूप चिन्तवन में है दत्त चित्त निजवेश || मन वच काय क्रियाएं सारी अतः हुई सब ही निस्सार । नहीं दृष्टि गोचर है कोई इसमें रत्ती भर भी सार || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम |
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥७॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. |
(८) किंचित्कदोत्तं क्वापि न यतो नियमानमः । तस्मादनंतशः शुद्धचिद्रूपाय प्रतिक्षणम् ॥८॥