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१३५ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
सर्व ज्ञान दर्शी स्वभाव से देखन जानन हारा है । किन्तु कर्म फल से जो प्रेरित उसको ही भव धारा है॥
निरन्तर बहती रहती है। घंटा घडी पल आदि व्यवहार काल का भी सदा हेर फेर होता रहता है । द्रव्यों की पर्यायें पलटती रहती हैं। लोक के अधो भाग में घनवात तनुवात अबुंवात ये तीनों वातें सदा घूमती रहती है । और तालाब आदि में पद्म आदि सद उत्पन्न होते रहते हैं। उसी प्रकार मेरे मन में भी सदा शुद्ध चिद्रूप का स्मरण बना रहे। जिससे मेरा कल्याण हो ।
५. ॐ ह्रीं क्षणिकपर्यायविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । शाश्वतनिजात्मस्वरूपोऽहम् ।
ताटंक
सूर्य चंद्र ज्यों चलते रहते ज्यों गंगा धारा बहती । घटा घड़ी आदि व्यवहार काल गति परिवर्तित होती ॥ द्रव्यों की पर्यायें पलटा करती हैं सदैव दिनरात । तथा लोक के अधोभाग में तीनों बात वलय विख्यात | सभी घूमते कमल सरोवर में पैदा होते रहते । उसी भांति चिद्रूप स्मरण के ही भाव सदा रहते || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ||५|| ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(६)
इति हत्कमले शुद्धचिद्रूपोऽहं तिष्ठतु ।
द्रव्यतो भावतस्तावद् यावदंगे स्थितिर्मम ||६||
अर्थ- जब तक मैं द्रव्य या भाव किसी रीति से इस शरीर में मौजूद हूं। तब तक मेरे ह्रदय कम में शुद्धचिद्रूपोहं ( मैं शुद्ध चित्स्वरूप हूं) यह बात सदा स्थित रहे। रक्त मज्जा आदि धातुओं का पिण्ड स्वरूप द्रव्य शरीर है और वह मेरा हैं ऐसा संकल्प भाव शरीर है ।
६. ॐ ह्रीं संकल्परूपभावशरीररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः |
ज्ञानशरीरस्वरूपोऽहम् ।