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१३४ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी षष्टम अध्याय पूजन समकित का प्रति बंधक है मिथ्यात्व जिनेश्वर कहते । जो इसको गले लगाते वे ही भव दुख बहु सहते ॥ पव्यग्न्यब्यगपंककूपवनभूक्षेपापमानं भयं
केचिच्चेत् कलयंतु शुद्धपरमब्रह्मस्मृतावन्वहम् ।।४|| अर्थ- जिस समय मैं शुद्धचिद्रूप के चितवन में लीन होऊँ, उस समय दुष्ट मनुष्य यदि मुझे निरन्त शाप देवें, दो। मेरी चीज चुरायें, चुराओ। मेरे शरीर के टुकड़े टुकड़े करें, करो। शिरपर वज्र डालें, डालो। अग्नि, समुद्र, पर्वत, कीचड़, कूए, वन और पृथ्वी पर फेकें, फेंको। अपमान और भय करें करो। मेरा कुछ बिगाड़ नहीं हो सकता। अर्थात् वे मेरी आत्मा को किसी प्रकार भी हानि नहीं पहुंचा सकते । ४. ॐ ह्रीं वधताडनादिविकल्परहितशुद्धचिद्माय नमः ।
अवध्यस्वरूपोऽहन।
वीरछद जब मैं परम शुद्ध चिद्रूप चिन्तवन में हो जाऊं लीन । उस क्षण दुष्ट मनुष्य निरंतर देवे शाप करें तन क्षीण | मेरी वस्तु चुरावें तन को छेदे भेदें विविध प्रकार | वज्र अग्नि पर्वत समुद्र वन पृथ्वी के दें कष्ट अपार || भय पहुंचाते या अपमान करें वे मेरा बारंबार । मेरी कुछ भी हानि नहीं है मैं तो रहता हूं अविकार || मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम ।
इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ॥४॥ ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
चन्द्रार्कभ्रमवत्सदा सुरनदीधारोघसंपातवल्लोकेस्मिन् व्यवहारकालगतिवद् द्रव्यस्य पर्यायवत् । लोकाधस्तलवातसंगमनवत् पद्मादिकोदभूतिवत्
चिद्रूपस्मरणं निरन्तरमहो भूयाच्छिवाप्त्यै मम |५|| | अर्थ- जिस प्रकार संसार में सूर्य चन्द्रमा निरन्तर घूमते रहते हैं। गंगा नदी की धार |