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१३७ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
सन्यास विभावों से ही हो सिद्ध ज्योति अंतर में । पूनम के चंदा सम हो आनंद बुद्धि निज उर में ॥
अर्थ- किसी काल और किसी देश में शुद्ध चिद्रूप से बढ़कर कई भी पदार्थ उत्तम नहीं है, ऐसा मुझे पूर्ण निश्चय है। इसलिये मैं इस शुद्ध चिद्रूप के लिये प्रति समय अनन्त बार नमस्कार करता हूं ।
८. ॐ ह्रीं परमज्ञानपुअस्वरूपाय नमः ।
परमसौख्यधामस्वरूपोऽहम् ।
ताटंक
किसी काल में किसी देश में नहीं कोई सर्वोत्तम है । एकमात्र चिद्रूप शुद्ध निज अत्युत्तम परमोत्तम है | अतः शुद्ध चिद्रूप प्रतिसमय का आदर करता हूं नाथ । यही भाव है यही अचल है यही विमल है यही सनाथ ॥ मैं ही तो चिद्रूप शुद्ध हूं उत्तम लक्ष्य मोक्ष का धाम । इसको ही पाना है मुझको इसमें करना है विश्राम ||८|| ॐ ह्रीं षष्टम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(९) वाहायंत: संगमंगं नृसुरपतिपदं कर्मबंधादि भावविद्याविज्ञानशोभाबलभवखसुखं कीर्तिरूपप्रतापम् । राज्यांगाख्यागकालाास्रवकुपरिजनं वाग्मनोयानधीद्धा
तीर्थेशत्वं ह्यनित्यं स्मर परमचलं शुद्धचिद्रूपमेकम् ॥९॥
अर्थ- बाह्य आभ्यंतर परिग्रह शरीर, सुरेन्द्र और नरेन्द्र का पद कर्मबन्ध आदिभाव, विद्या विज्ञान कला कौशल शोभा बल जन्म इन्द्रियों का सुख कीर्ति रूप प्रताप राज्य पर्वत नाम वृक्ष काल आस्रव पृथ्वी परिवार वाणी मन वाहन बुद्धि दीप्ति तीर्थकरपना आदि सब पदार्थ चालयमान अनित्य हैं। केवल शुद्धचिद्रूप नित्य है और सर्वोत्तम है इसलिये सब पदार्थों का ध्यान छोडकर इसी का ध्यान करो ।
९. ॐ ह्रीं अनित्यस्वरूपराज्यपर्वतादिरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
परमाचलस्वरूपोऽहम् ।