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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान शुद्धात्म भावना ही भाले चैतन्य वाद्य निज वजा बजा ।
तेरे भीतर गुण हैं अनंत निज आत्म द्रव्य को सजा सजा॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
. (११) शौचसंयमशीलानि दुर्धराणि तपासि च ।
शुद्धचिद्रूपसदध्यानमंतराधृतवानहम् ॥११॥ अर्थ- मैंने अनंतबार शौच संयम शीलों को भी धारण किया। भांति भांति के घोरतम तप भी जपे । परन्तु शुद्धचिद्रूप का कभी स्मरण न किया । ११. ॐ ह्रीं दुर्धरतपविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
शुचितास्वरूपोऽहम् । गुणशील शौचं संयम भी धारा है बार अनंतों । तप तथा धोर तप कर भी पाए हैं दुक्ख अनंतों ॥ फिर भी चिद्रूप शुद्ध का मैं ध्यान नहीं कर पाया । चिद्रप शुद्ध की महिमा का ज्ञान नहीं कर पाया ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥११॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२) एकेन्द्रियादिजीवेषु पर्यायाः सकला धृताः ।
अजानता स्वचिद्रूपं परस्पर्शादि जानता ||१२॥ अर्थ- मैं अनेक बार एकेन्द्रिय दो इन्द्रिय तेइन्द्रिय चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय हुआ। एकेन्द्रिय आदि में वृक्ष आदि अनन्तों पर्यायों को धारण किया। दूसरे के स्पर्श रस गंध आदि को भी जाना। परन्तु स्वस्वरूप शुद्धचिद्रूप आज तक न पाया, न पहिचाना । १२. ॐ ह्रीं एकेन्द्रियादिपर्यायरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।।
अजन्मास्वरूपोऽहम् । इक द्वय त्रय चऊ पंचेन्द्रिय तन बहुत बार है पाया । एकेन्द्रिय तरु तन पाया रस गंध आदि भी पाया |