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११८ तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचम अध्याय पूजन है साम्यभाव चारित्र दशा लौकिक महान मुनिराजों की। निष्कर्म अवस्था के स्वामी जय हो ऐसे ऋषिराजों की ||
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वृद्धसेवाता विद्वन्महतां सदसि स्थितः ।
न लब्धं शुद्धचिद्रूपं तथापि भ्रमता निजम् ॥९॥ अर्थ- इस संसार में भ्रमण कर मैंने कई बार वृद्धों की सेवा की। विद्वानों की बड़ी बड़ी सभाओं में भी बैठा। परन्तु अपने आत्मिक स्वरूप का कभी मैंने लाभ न किया । ९. ॐ ह्रीं वृद्धसेवाविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अकृत्रिमबोधस्वरूपोऽहम् । संसार भ्रमण कर वृद्धों की सेवा भी कर आया । चिद्रूप शुद्ध को मैंने अब तक न किन्तु है पाया ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥९॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१०) मानुष्यं बहुशो लब्धमार्ये खंडे च सत्कुलम् ।
आदि संहननं शुद्धचिद्रूपं न कदाचन ॥१०॥ अर्थ- मैं आर्यखंड में बहुतबार मनुष्य हुआ । कई बार उत्तम कुल में भी जन्म पाया । वज्रवृषभ नाराच संहनन भी प्राप्त किया। परन्तु शुद्धचिद्रूप का कभी स्मरण न किया। १०. ॐ ह्रीं आर्यखण्डसत्कुलादिविकल्परहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
चैतन्यकुलस्वरूपोऽहम् । मैं आर्य खंड में जन्मा उत्तम कुल नर भव पाया । संहनन बज्र अरु वृषभ नाराच बेर बहु पाया ॥ पर नहीं पा सका अब तक चिद्रूप शुद्ध गुणधारी । अतएव बना हूं अब तक मैं तो हे प्रभु संसारी ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है । अतएव आत्मा मेरा चहंगति में भटकाया है ॥१०॥