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• श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान यह दर्शन मोह क्रिया कांडी चारित्र मोह जय करना है। तुमको ही सर्व देश आस्रव भावों को पूरा हरना है || चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥३॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि ।
(४) सुरद्रुमा निधानानि चिंतारत्नं धुसद्गवी ।
लब्धाः च न परं पूर्वं शुद्धचद्रूिपसंपदः || अर्थ- मैंने कल्पवृक्ष खजाने चिन्तामणि रत्ल और कामधेनु प्रभृति लोकोत्तर अनन्यलभ्य विभूतियां प्राप्त कर ली। परन्तु अनुपम शुद्धचिद्रूप नाम की संपत्ति आज तक कहीं न पाई। ४. ॐ ह्रीं सुरद्रुमनिधानादिप्रयोजनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
चैतन्यकल्पवृक्षोऽहम् ।। बहु कल्प वृक्ष कोषालय चिन्तामणि रत्न मिले हैं । अरु कामधेनु भी पायी साता के भाव झिले हैं | सम्पत्ति शुद्ध चिद्रूपी मैंने न कभी भी पायी । अनुपम अचिन्त्य महिमामय निज निधि न कभी दरशायी॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥४॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
द्रव्यादि पंचधा पूर्व परावर्ता अनंतशः ।
कृतास्तेष्वेकशो न स्वं स्वरूपं लब्धवानहम् ॥५॥ . अर्थ- मैंने अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण किया। इसमें द्रव्य क्षेत्र काल नाम के पांचों परविर्तन भी अनन्तबार पूरे किये। परन्तु स्वस्वरप शुद्धचिद्रूप की प्राप्ति मुझे आज तक एक बार भी न हुई ।