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११६ तत्त्वज्ञान तरंगिणी पंचम अध्याय पूजन चारित्र मोह का वंधन है पर हैं बंधन से बहुत दूर |
वे भाव मोक्ष के स्वामी है है द्रव्य मोक्ष का निकट पूर || | ५. ॐ ह्रीं द्रव्यादिपञ्चपरावर्तनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः । .
अचलस्वरूपोऽहम् । द्रव्यादि पंच परिवर्तन मैने अनंत प्रभु पाए । संसार परिभ्रमण करके मैंने बहु कष्ट उठाए । लेकिन स्वस्वरूप न पाया चिद्रूप शुद्ध पल भर भी । पा लेता अगर इसे मैं क्षय होता जन्म मरण भी ॥ चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥५॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(६) इन्द्रादीनां पदं लब्धं पूर्व विद्याधरेशिनाम् ।
अनंतशोऽहमिन्द्रस्य स्वस्वरूपं न केवलम् ॥६॥ अर्थ- मैंने पहिले अनंतबार इन्द्र नृपति आदि उत्तमोत्तम पद भी प्राप्त किये। अनंत बार विद्याधरों का स्वामी और अहमिन्द्र भी हुआ। परन्तु आत्मिक शुद्धचिद्रूप का लाभ न कर सका। ६. ॐ ह्रीं अहमिन्द्रादिपदाभिलाषरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निरभिलाषोऽहम् । बहुबार इन्द्र विद्याधर अहमिन्द्र नृपति पद पाया ।
आत्मिक चिद्रूप शुद्ध का मैं लाभ नहीं ले पाया | चिद्रूप शुद्ध का वैभव मैंने न कभी पाया है ।
अतएव आत्मा मेरा चहुंगति में भटकाया है ॥६॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय संमन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(७) , मध्ये चतुर्गतीनां च बहुशो रिपवो जिताः । पूर्व न मोहप्रत्यर्थी स्वस्वरूपोलब्धये ||७||