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११३ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान है चिदानद घन के भीतर अराधना सहित सम्यक् चारित्र। है देह क्रिया इसमें न कहीं जो देह क्रिया वह ना चारित्र॥ वसु विधि प्रभु अर्घ्य बनाऊं। ज्ञानानन्दी सुख पाऊं ।
चिद्रूप शुद्ध निज ध्याऊं। परमोत्तन शिव पद पाऊं ॥ ॐ ह्रीं पंचम अध्याय समन्वित श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि. ।
अर्ध्यावलि
पंचम अध्याय भूतकाल में शुद्ध चिद्रूप की अप्राप्ति का वर्णन
रत्नामानोषधीनां वसनरसरुजामन्नधातूपलानां, स्त्रीभाश्वानां नराणं जलचरवयसांगोमहिष्यादिकानाम् । नामोत्पत्यर्घतार्थान् विशदमतितया ज्ञातवान् प्रायशोऽहं,
शुद्धचिद्रूपमात्रकथमहह निजं पूर्व कदाचित् ||१|| अर्थ- मैंने पहिले कई बार रत्न, औषधि, वस्त्र, घी आदि रत्न, रोग अन्न सोना चांदी आदि पाषाण स्त्री हस्ती घोड़े मगर, मच्छ आदि जल के जीव पक्षी और गाय भैंस आदि पदार्थो के नाम उत्पत्ति मूल्य और प्रयोजन भले प्रकार अपनी विशुद्ध बुद्धि से जान सुन लिये हैं, परन्तु जो शुद्धचिद्रूप नित्य है, आत्मिक है उसे आज तक कभी पहले नहीं जाना । १. ॐ ह्रीं रत्नौषधिवसनरसादिप्रयोजनरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
ज्ञानरत्नस्वरूपोऽहम् ।
छंद मानव रत्नादिक स्वर्ण रजत सब वस्त्रादिक पदार्थ जाने । रागादिक औषधि रस गज गौ आदिक अपने माने | पर नहीं जान पाया हूं चिद्रूप शुद्ध की महिमा । आत्मीय नित्य अविनश्वर चिद्रूप शुद्ध की गरिमा |