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१०१ श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान
आनंद स्वरूप निराकुल है भगवान आत्मा परमात्मा । प्रतिकूल संयोगों से विचलित होता है कभी न शुद्धात्मा॥
पदार्थ की चिंता से मेरे स्वस्वरूप का नाश होता है । १०. ॐ ह्रीं निजगुणवैभवस्वरूपाय नमः । नित्यैकचिदात्मस्वरूपोऽहम् ।
शुद्ध चिद्रूप के अतिरिक्त नहीं मैं कुछ हूँ । कोई पदार्थ नहीं मेरा मैं सभी कुछ हूं ॥ शुद्ध चिद्रूप ही मेरा है सदा से सर्वस्व । शुद्ध चिद्रूप से ही मेरा है पूरा वर्चस्व ॥१०॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(११)
अनुभूय मया ज्ञातं सर्व जानाति पश्यति ।
अयमात्मा यदा कर्मप्रतिसीरा न विद्यते ॥११॥
अर्थ- जिस समय कर्मरूपी पर्दा इस आत्मा के ऊपर से हट जाता है, उस समय यह समस्त पदार्थो को साक्षात् जान देख लेता है। यह बात मुझे अनुभव से मालून पड़ती है ।
११. ॐ ह्रीं कर्मप्रतिसीररहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
अप्रतीमस्वरूपोऽहम् ।
कर्म का आवरण आत्मा से जब भी हट जाता । होता अनुभव भी तभी दृष्टि में स्वंय आता ॥ शुद्ध चिद्रूप का स्वभाव दृष्टा ज्ञाता है । यही तो एकमात्र विश्व में विख्याता है ॥११॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१२) विकल्पजालजंबालान्निर्गतोऽयं सदा सुखी ।
आत्मा तत्र स्थितो दुःखीत्यनुभूय प्रतीयताम् ||१२||
अर्थ- जब तक यह आत्मा नाना प्रकार के संकल्प विकल्परूपी शेवाल (काई) में फंसा