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तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन
आत्मा अखंड प्रत्यक्ष ज्योति चिन्मात्र अनंत ज्ञान घन है। चंचल कल्लोंलों का निरोध होते ही सम्यक् दर्शन है ||
रहता है, तब तक यह सदा दुःखी बना रहता है। क्षणभर के लिये भी इसे सुख शांति नहीं मिलती। परन्तु जब इसके संकल्प विकल्प छूट जाते हैं। उस समय ही सुखी हो जाता है। निराकुलतामय सुख का अनुभव करने लगा जाता है। ऐसा स्वानुभव से निश्चय होता है ।
१२. ॐ ह्रीं विकल्पजालजम्बालरहितशुद्धचिद्रूपाय नमः ।
निर्मलसुखस्वरूपोऽहम् ।
जब तक संकल्प विकल्पों में उलझा है प्राणी । तब तलक दुख है शान्ति भी नं रंच पहचानी ॥ जब ये संकल्प विकल्पों से दूर तभी सुख स्वानुभव आनंद मयी शुद्ध चिद्रूप के बल से ही मोक्ष शुद्ध चिद्रूप की जय से ही सौख्य झिलता है ॥१२॥
ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. ।
(१३)
होता है होता है ॥
मिलता है ।
अनुभूत्या मया बुद्धमयमात्मा महाबली ।
लोकालोकं यतः सर्वमंतर्नयति केवलः ॥१३॥
अर्थ- यह शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा अचिंत्य शक्ति का धारक है ऐसा मैंने भले प्रकार अनुभव कर जान लिया है। क्योंकि यह अकेला ही समस्त लोक अलोक को अपने में प्रविष्ट कर लेता है ।
१३. ॐ ह्रीं अचिनन्त्यशक्तिसंपन्नचिद्रूपाय नमः ।
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बुद्धोऽहम् ।
शुद्ध चैतन्य स्वरूपी है आत्मा उत्तम 1 अचिन्त्य शक्ति का धारी जगत में सर्वोत्तम ॥ यह अकेला ही लोक अरु अलोक का ज्ञाता । सारा ही लोक अलोक इसमें ही समा जाता ॥