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________________ १०० तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय पूजन हो दर्शन ज्ञान शक्ति प्रभुता स्वच्छता दृष्टि हो अति निर्मल। भूतार्थ तत्त्व का आश्रय हो निर्मल स्वभाव हो अति उज्ज्वल ॥ शुद्ध चिद्रूप के हैं नाम अनेकों जानो । सर्व दृष्टा है चिदात्मा है परंब्रह्म मानो ॥ यही परमात्मा हैं यही शुद्ध आत्मा है । जो भी ज्ञानी है उन्हें यही सिद्ध आत्मा है ॥ शुद्ध चिद्रूप ही सब बातों में पूरा पूरा । रंच भी है नहीं अधूरा ये पूरा पूरा ॥८॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । मध्ये श्रुताब्धेः परमात्मनामरत्नब्रजं वीक्ष्य मया ग्रहीतम् । सर्वोत्तमत्वादिदमेव शुद्धचिद्रूपनामातिमहार्य्यरत्नम् ९॥ अर्थ- जैन शास्त्र एक अपार सागर है और उसमें परमात्मा के नामरूपी अनन्त रत्न भरे हुए हैं। उनमें से भले प्रकार परीक्षाकर और सबों में अमूल्य उत्तम मान यह शुद्धचिद्रूप नाम रूपी रत्न मैंने ग्रहण किया है । ९. ॐ ह्रीं महाय॑चैतन्यरत्नस्वरूपाय नमः ।। चैतन्यरत्नाकरस्वरूपोऽहम् । शुद्ध चिदू प नाम रत्न मैं ने पाया है । शास्त्र सागर की भांति यही मुझे भाया है ॥ शुद्ध चिद्रूप का सत्कार मुझे प्यारा है । शुद्ध चिद्रूप सदा ही तो सबसे न्यारा है ॥९॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय अर्घ्य नि. । (१०) नाहं किंचिन्न में किंचिद् शुद्धचिद्रूप कंबिना । तस्मादन्यत्र मे चिंता वृथा लयं भजे ॥१०॥ अर्थ- संसार में सिवाय चिद्रूप के न तो मैं कुछ हूं और न अन्य ही कोई पदार्थ मेरा | हैं। इसलिये शुद्धचिद्रूप से अन्य किसी पदार्थ में मुझे चिंता करना व्यर्थ है. क्योंकि अन्य ।
SR No.007196
Book TitleTattvagyan Tarangini Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherTaradevi Pavaiya Granthmala
Publication Year1997
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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