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श्री तत्त्वज्ञान तरंगिणी विधान परिपूर्ण अकेला ज्ञान पिंड चैतन्य शुद्ध घन रूप सहज। निश्चय से यह परमात्मा है इसमें न कर्म की कोई रज॥
पूजन क्रमांक ५ तत्त्वज्ञान तरंगिणी चतुर्थ अध्याय
स्थापना
गीतिका तत्त्वज्ञान तंरगिणी के चतुर्थम् अधिकार को ।। करूं ह्रदयंगम प्रभो मैं तनँ राग विकार को ॥ सुगमता से प्राप्त करवू शुद्ध निज चिद्रूप को ।।
सतत निरखा ही करूं मैं शुद्ध आत्म स्वरूप को | ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागम अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागम अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठः । ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागम अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अष्टक
चौपायी जन्म जरा अरु मरण विनायूँ। अपना उज्जवल रूप प्रकायूँ ॥
शुद्ध आत्मा के गुण गाऊँ। परम शुद्ध चिद्रूप रिझाऊँ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि. ।
भव आतप ज्वर से हूं दुखमय। निज गुण चंदन ही शिव सुखमय ॥
शुद्ध आत्मा के गुण गाऊँ। परम शुद्ध चिद्रूप रिझाऊँ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्थ अधिकार समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय संसारताप
विनाशनाय चदनं नि ।