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९२ तत्त्वज्ञान तरंगिणी तृतीय अध्याय पूजन है अर्चनीय अति वंदनीय शुद्धात्म तत्त्व पावन महान । ये ही पूजा के योग्य सदा ये ही है त्रिभुवन में प्रधान || मोह विसर्जित हो जाते ही उत्पन्नित होता आनंद । स्वानुभूति ही मूलाधार धर्म का देती परमानंद ॥ निज आत्मा ही परम सुगुरु है यही मोक्ष ले जाएगी । निज आत्मा को सिद्ध शिला पर निज बल से बिठलाएगी || तु चेतन कुमार था अब तक अब चैतन्य राज होगा । कृतकृत्य हो जाएगा तू तेरा ही स्वराज होगा ॥ मात्र शुद्ध चिद्रूप शक्ति से सादि अनंत सौख्य पाले । मात्र शुद्ध चिद्रूप शक्ति से शाश्वत मुक्तिपुरी जाले ॥
ॐ ह्रीं तृतीय अध्याय समन्वित श्री तत्त्व ज्ञान तरंगिणी जिनागमाय जयमाला पूर्णार्घ्य नि. ।
आशीर्वाद
एक शुद्ध चिद्रूप ही शीतल चंद्र समान ज्ञायक लोकालोक का येही है भगवान ॥ इत्याशीर्वाद :
भजन
अनुभव रस की नन्हीं बुदियां बरसी है मेरे भीतर । अन्तर्मन को निर्मल करती ज्ञान बादली है भीतर ॥ भव वासना विलीन हो गई मोक्ष प्राप्ति की आशा जागी । तत्त्वज्ञान की शुभ तरंग पायी मैंने अपने भीतर ॥ कौन पराया कौन आपना स्वपर विवेक जागा उर में । भेद ज्ञान विज्ञान हो गया तत्क्षण ही मेरे भीतर ॥
निजदीप जनता हूँ वसुकर्म गलाता हूँ । रूठी हुई परिणति को मैं आज बुलाता हूं ॥ अपनी स्वभाव छवि पर सर्वस्व लुटाता हूं । शुद्धात्म तत्त्व लाकर रागादि घुलाता हूँ ॥