________________
९३
ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय और ज्ञानज्ञेय द्वैतनय
(२४-२५) ज्ञानज्ञेय अद्वैतनय और ज्ञानज्ञेय द्वैतनय
ज्ञानज्ञेयाद्वैतनयेन महदिन्धनभारपरिणतधूमकेतुवदेकम् ॥२४॥ ज्ञानज्ञेयद्वैतनयेन परप्रतिबिंबसंपृक्तदर्पणवदनेकम्॥२५॥
शून्यनय और अशून्यनय की चर्चा के उपरान्त अब ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनय और ज्ञानज्ञेय-द्वैतनय की चर्चा करते हैं - ___आत्मद्रव्य ज्ञानज्ञेय-अद्वैतनय से महान ईंधनसमूहरूप परिणत अग्नि की भाँति एक है और ज्ञानज्ञेयद्वैतनय से पर के प्रतिबिम्बों से संपृक्त दर्पण की भाँति अनेक है॥२५॥" |
सर्वगत और असर्वगतनय से ज्ञान-ज्ञेय प्रकरण ही चल रहा है। वस्तुत: बात यह है कि भगवान आत्मा का परपदार्थों के साथ ज्ञानज्ञेय संबंध के अतिरिक्त और कोई सम्बन्ध तो है ही नहीं, इस ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध की भी क्या स्थिति है - इस बात को ही इन नयों के माध्यम से स्पष्ट किया जा रहा है।
सर्वगत और असर्वगत नयों के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया था कि यह भगवान आत्मा अपने प्रदेशों में सीमित रहकर भी सम्पूर्ण लोकालोक को जान सकता है; जानता है। सम्पूर्ण लोकालोक को जानने के कारण ही इसे सर्वगत कहा जाता है तथा अपने प्रदेशों के बाहर न जाने के कारण आत्मगत अथवा असर्वगत कहा जाता है। ___ यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि अपने प्रदेशों के बाहर नहीं जाकर भी जब यह भगवान आत्मा लोकालोक के सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानता है तो फिर सम्पूर्ण लोकालोकरूप ज्ञेय ज्ञान में आते होंगे ? तो क्या यह भगवान आत्मा लोकालोकरूप सम्पूर्ण ज्ञेयों से भरा हुआ है ?
इसके उत्तर में शून्य और अशून्य नयों के माध्यम से यह बताया गया है कि किसी भी ज्ञेय पदार्थ ने ज्ञान में प्रवेश नहीं किया; अत: ज्ञान ज्ञेयों से शून्य ही है, खाली ही है; तथापि वे ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात अवश्य हुए