________________
४७ शक्तियाँ और ४७ नय भगवान आत्मा के इस अलिप्तस्वभाव को, अमिलितस्वभाव को, शून्यस्वभाव को ही शून्यधर्म कहते हैं और इस शून्यधर्म को विषय बनानेवाले सम्यग्ज्ञान के अंश को शून्यनय कहते हैं।
यद्यपि यह सत्य है कि कोई भी पदार्थ भगवान आत्मा में मिलता नहीं है; तथापि यह भगवान आत्मा उन्हें जानता अवश्य है।
यदि इस जानने को ही मिलना कहें तो यह भी कह सकते हैं कि यह भगवान आत्मा लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति अनन्त ज्ञेयों (पदार्थों) से भरा हुआ है, मिलित है, अशून्य है। _भगवान आत्मा के इस अशून्यस्वभाव को ही अशून्यधर्म कहते हैं और इस अशून्यधर्म को विषय बनानेवाले सम्यग्ज्ञान के अंश को अशून्यनय कहते हैं। तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक शून्य नामक धर्म है और एक अशून्य नामक धर्म है तथा इनके कारण भगवान आत्मा शून्य भी है और अशून्य भी है।
शून्य नामक धर्म यह बताता है कि भगवान आत्मा अनन्त ज्ञेयों (पदार्थों) को जानकर भी उनसे शून्य (खाली - अमिलित) ही रहता है और अशून्य नामक धर्म यह बताता है कि ज्ञेयो (परपदार्थों) का आत्मा में अप्रवेश रहकर भी यह भगवान आत्मा ज्ञेयों के ज्ञान से शून्य नहीं रहता, अशून्य (भरा हुआ - मिलित) रहता है। ___ आत्मा के परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले इन धर्मों का ज्ञान कराना ही इन दोनों नयों का उद्देश्य है। ____ आत्मा के शून्य नामक धर्म को विषय बनानेवाले ज्ञान को व कहने वाले वचन को शून्यनय कहते हैं और अशून्य नामक धर्म को विषय बनानेवाले ज्ञान को व कहनेवाले वचन को अशून्यनय कहते हैं।
इसप्रकार यह स्पष्ट है कि आत्मद्रव्य शून्यनय से सूने घर की भाँति ज्ञेयों से शून्य है और अशून्यनय से मनुष्यों से भरे हुए जहाज की भाँति ज्ञेयों से अशून्य है॥२२-२३॥