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विकल्पनय और अविकल्पनय
“आत्मद्रव्य विकल्पनय से बालक, कुमार और वृद्ध - ऐसे एक पुरुष की भाँति सविकल्प है और अविकल्पनय से एक पुरुषमात्र की भाँति अविकल्प है ।। १०-११ ॥ "
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यहाँ 'विकल्प' का अर्थ भेद है और 'अविकल्प' का अर्थ अभेद है। जिसप्रकार एक ही पुरुष बालक, जवान और वृद्ध इन अवस्थाओं को धारण करनेवाला होने से बालक, जवान एवं वृद्ध - ऐसे तीन भेदों में विभाजित किया जाता है; उसीप्रकार भगवान आत्मा भी ज्ञान, दर्शनादि गुणों एवं मनुष्य, तिर्यंच, नरक, देवादि अथवा बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा आदि पर्यायों के भेदों में विभाजित किया जाता है।
तथा जिसप्रकार बालक, जवान एवं वृद्ध अवस्थाओं में विभाजित होने पर भी वह पुरुष खण्डित नहीं जो जाता, रहता तो वह एक मात्र अखण्डित पुरुष ही है। उसीप्रकार ज्ञान - दर्शनादि गुणों एवं नरकादि अथवा बहिरात्मादि पर्यायों के द्वारा भेद को प्राप्त होने पर भी भगवान आत्मा रहता तो एक अखण्ड आत्मा ही है।
तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा में एक विकल्प नामक धर्म है, जिसके कारण आत्मा गुण-पर्यायों के भेदों में विभाजित होता है; अतः इसे भेद नामक धर्म भी कह सकते हैं । इस विकल्प (भेद) नामक धर्म को विषय बनानेवाला नय विकल्पनय है । इसीप्रकार भगवान आत्मा में एक अविकल्प नामक धर्म भी है, जिसके कारण आत्मा अभेद - अखण्ड रहता है, अत: इसे अभेद नामक धर्म भी कह सकते हैं। इस अभेद नामक धर्म को विषय बनानेवाला नय ही अविकल्पनय है। इन विकल्प और अविकल्प नयों को क्रमशः भेदनय और अभेदनय भी कहा जा सकता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि आत्मा में विद्यमान गुण - पर्याय भेदों को विषय बनानेवाला नय विकल्पनय और एक अभेद अखण्ड आत्मा को विषय बनाने वाला नय अविकल्पनय है ।
अनन्तधर्मात्मक आत्मा के अनन्तधर्मों में एक भेदधर्म है और