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४७ शक्तियाँ और ४७ न - इसका भी यही अर्थ हो सकता है कि मेरा कर्ता कोई अन्य नहीं, मेर कर्म भी अन्य कोई नहीं। इसीप्रकार करणादि कारकों पर भी घटित क लेना चाहिए॥४७॥ __ अन्त में यही निष्कर्ष रहा कि मैं तो मैं ही हूँ, षट्कारक के प्रक्रिया से पार स्वयं में परिपूर्ण स्वतंत्र पदार्थ । यही कारण है कि इन शक्तियों के आत्मा में विद्यमान होने पर भी इनके लक्ष्य से निर्मल पर्याय प्रगट नहीं होती; अपितु इन शक्तियों के संग्रहालय अभेदअखण्ड त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के आश्रय से ही सम्यग्दर्शनादि निर्मल पर्यायों का आरंभ होता है।
इसप्रकार संबंधशक्ति की चर्चा के साथ-साथ ४७ शक्तियों के चर्चा भी समाप्त होती है।
उक्त ४७ शक्तियों की चर्चा में दृष्टि के विषय भूत अनंत शक्तियों के संग्रहालय भगवान आत्मा का स्वरूप तो स्पष्ट हुआ ही है, साथ में उछलती हुई शक्तियों की बात कहकर; शक्तियों के उछलने की चर्चा करके, निर्मलपर्यायरूप से परिणमित होने की बात करके द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत द्रव्य की चर्चा के साथ-साथ पर्यायार्थिकनय के विषयभूत निर्मल परिणमन को भी स्वयं में समेट लिया है।