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तत्त्वशक्ति और अतत्त्वशक्ति
परिशिष्ट के आरम्भिक अंश में ज्ञानमात्र आत्मा में अनेकान्तपना सिद्ध करते हुए जिन १४ भंगों की चर्चा की गई है; उन भंगों में चर्चित तत्-अतत्, एक-अनेक आदि धर्म ही यहाँ तत्त्व - अतत्त्व, एकत्व - अनेकत्व आदि शक्तियों के रूप में प्रस्तुत किये गये हैं ।
वहाँ जो अनेकान्त की चर्चा की गई है, उसमें अनेकान्त शब्द की व्युत्पत्ति दो प्रकार से की गई है। पहली अनंत गुणों के समुदाय के रूप में और दूसरे परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले धर्मयुगलों के रूप में। उसी को आधार बनाकर यहाँ पहले गुणरूप शक्तियों की चर्चा की गई और बाद में धर्मरूप शक्तियों पर प्रकाश डाला जा रहा है ।
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प्रश्न: क्या शक्तियाँ गुण और धर्मरूप ही होती हैं ?
उत्तर : गुण और धर्मों के अतिरिक्त कुछ शक्तियाँ स्वभाव रूप भी होती हैं । त्यागोपादानशून्यत्व जैसी शक्तियाँ स्वभावरूप हैं।
प्रश्न : त्यागोपादानशून्यत्व जैसी शक्तियाँ स्वभावरूप क्यों हैं ? उत्तर : क्योंकि त्यागोपादानशून्यत्व जैसी शक्तियों की न तो पर्यायें होती हैं और उनका कोई प्रतिपक्षी होता है। जिन शक्तियों की पर्यायें होती हैं और जिनका प्रतिपक्षी नहीं होता; वे गुणरूप शक्तियाँ हैं और जिनकी पर्यायें तो नहीं होतीं, पर प्रतिपक्षी अवश्य होता है, वे धर्मरूप शक्तियाँ हैं ।
जिनकी न पर्यायें हों और न प्रतिपक्षी ही हों; वे स्वभावशक्तियाँ हैं। इस त्यागोपादानशून्यत्व-शक्ति की न तो पर्यायें होती हैं और न कोई प्रतिपक्षी ही होता है; इसकारण वे स्वभावरूप शक्तियाँ हैं। बस बात इतनी ही है कि भगवान आत्मा का ऐसा स्वभाव ही है कि वह न तो किसी से कुछ ग्रहण ही करता है और न किसी का त्याग ही करता है । इसप्रकार हम देखते हैं कि शक्तियों में धर्म और स्वभाव - गुण, सभी को समाहित कर लिया गया है ।। २९-३० ॥
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इसप्रकार तत्त्वशक्ति और अतत्त्वशक्ति का निरूपण करने के उपरान्त
अब एकत्वशक्ति और अनेकत्वशक्ति का निरूपण करते हैं -