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४७ शक्तियाँ और ४७ नय १३. असंकुचितविकासत्वशक्ति क्षेत्रकालानवच्छिन्नचिद्विलासात्मिका असंकुचितविकाशत्वशक्तिः। जाते हैं; किन्तु अपने भगवान आत्मा का अनुभव किया जाता है। वह अनुभव स्वसंवेदनमयी प्रकाशशक्ति का ही कार्य है।
इस शक्ति की श्रद्धा और ज्ञान होने से आत्मानुभव के लिए पर के सहयोग की आकांक्षा से उत्पन्न होनेवाली आकुलता का अभाव होकर निराकुल शान्ति की प्राप्ति होती है॥१२॥
इसप्रकार प्रकाशशक्ति की चर्चा करने के उपरान्त अब असंकुचितविकासत्वशक्ति की चर्चा करते हैं - __ इस तेरहवीं असंकुचितविकासत्वशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है
असंकुचितविकासत्वशक्ति क्षेत्र और काल से अमर्यादित चिद्विलासात्मक (चैतन्य के विलासस्वरूप) है।
अनंत शक्तियों से सम्पन्न इस भगवान आत्मा में एक शक्ति ऐसी भी है कि जिसके कारण यह आत्मा बिना किसी संकोच के पूर्णरूप से विकसित होता है। तात्पर्य यह है कि इस भगवान आत्मा का प्रत्येक गुण पर्याय में निर्मलता के साथ-साथ पूर्णता को भी प्राप्त होता है। ज्ञानगुण केवलज्ञान रूप परिणमित होता है, श्रद्धागुण क्षायिकसम्यक्त्वरूप परिणमित होता है।
यह शक्ति क्षेत्र और काल से अबाधित है और चैतन्य के विलास रूप है। तात्पर्य यह है कि इस आत्मा के चैतन्य के विलास में क्षेत्र और काल संबंधी कोई संकोच नहीं है, सीमा नहीं है; मर्यादा नहीं है।
इस शक्ति का रूपसभी गुणों में होने से वे भी असंकुचितविकासत्व को प्राप्त होते हैं। तात्पर्य यह है कि वे अपने-अपने स्वभाव के अनुसार पूर्ण विकास को प्राप्त होते हैं। उन्हें अपने अविच्छिन्न विकास के लिए क्षेत्र व काल संबंधी किसी भी प्रकार का संकोच नहीं होता, बाधा उपस्थित नहीं होती; क्योंकि उनमें असंकुचितविकासत्वशक्ति का रूप है।