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________________ १४ ४७ शक्तियाँ और ४७ नय ७. प्रभुत्वशक्ति अखण्डितप्रतापस्वातंत्र्यशालित्वलक्षणा प्रभुत्वशक्तिः । ज्ञान-दर्शन तो आत्मा का लक्षण है और सुख एक ऐसी वस्तु है कि जिसकी कामना सभी को है तथा वीर्यशक्ति के बिना इनकी रचना कौन करेगा; क्योंकि प्रत्येक वस्तु के स्वरूप की रचना करनेवाली अर्थात् उनके निर्मल परिणमन में हेतु तो यही वीर्यशक्ति है। इसप्रकार ये चार शक्तियाँ अनंतचतुष्टय के रूप में उल्लसित होती हैं; प्रस्फुटित होती हैं, उछलती हैं । यही कारण है कि इनका निरूपण आरंभ में ही किया गया है। जीवत्वशक्ति तो जीव का जीवन ही है और चितिशक्ति उसके चेतनत्व को कायम रखनेवाली शक्ति है । चितिशक्ति के ही दो रूप हैं - ज्ञान और दर्शन; जो आत्मा के लक्षण हैं। जिसके अतीन्द्रिय सुखरूप परिणमन की चाह सभी को है, वह अनाकुलत्वलक्षण सुखशक्ति आनन्द रूप है। इनके निरूपण के उपरान्त वीर्यशक्ति का निरूपण क्रमप्राप्त ही है; क्योंकि अनन्तचतुष्टय में तीन चतुष्टय तो आरंभ की पाँच या तीन शक्तियों में ही समाहित हो गये हैं; अब इस वीर्यशक्ति के निरूपण से हमारे लिए परम इष्ट अनन्त चतुष्टय पूर्ण हो जायेंगे। इसप्रकार हम देखते हैं कि आरंभ की छह शक्तियों में अनंतचतुष्टय के बीज विद्यमान हैं। ध्यान रहे, इस वीर्यशक्ति का माता - पिता के रज- वीर्य से कोई संबंध नहीं है; क्योंकि वे तो जड़ हैं, पुद्गल के परिणमन हैं । इसीप्रकार तीर्थंकर को जन्म से ही प्राप्त होनेवाले अतुल्यबल से भी इसका कोई संबंध नहीं है; क्योंकि वह भी शारीरिक बल से ही संबंध रखता है। इस वीर्यशक्ति का संबंध अनंतचतुष्टय में शामिल अनंतवीर्य से है। अनंतवीर्य इस वीर्यशक्ति के पूर्ण निर्मल परिणमन का ही नाम है।
SR No.007195
Book Title47 Shaktiya Aur 47 Nay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2008
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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