________________
अशुद्धनय और शुद्धनय
१२३ अशुद्धधर्म के कारण रागादिरूप परिणमित होता है; अत: अशुद्ध है और शुद्धधर्म के कारण सदा एकरूप रहता है; अतः शुद्ध है।
इसे इसप्रकार भी कह सकते हैं कि यह भगवान आत्मा अशुद्धनय से सोपाधिस्वभाववाला है और शुद्धनय से निरुपाधिस्वभाववाला है।
भगवान आत्मा के इन सोपाधिस्वभाव व निरुपाधिस्वभाव अर्थात् अशुद्धधर्म व शुद्धधर्म को विषय बनानेवाले नय ही क्रमश: अशुद्धनय व शुद्धनय हैं।
अशुद्धनय के माध्यम से यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादि विकारीभाव भी पर के कारण उत्पन्न नहीं होते, उनकी उत्पत्ति के कारण भी आत्मा में ही विद्यमान हैं। यदि आत्मा में अशुद्धधर्म नामक धर्म नहीं होता तो दुनिया की कोई भी शक्ति उसे रागादिभावरूप परिणमित नहीं करा सकती थी।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि यह भगवान आत्मा अशुद्धनय से सोपाधिस्वभाववाला अर्थात् अशुद्ध है और शुद्धनय से निरुपाधिस्वभाववाला अर्थात् शुद्ध है।
इसप्रकार यह भगवान आत्मा शुद्ध भी है और अशुद्ध भी है।
इसप्रकार ४७ धर्मों के माध्यम से भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट करनेवाले ४७ नयों का संक्षिप्त स्वरूप कहा।