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४७ शक्तियाँ और ४७ नय
(४६-४७) अशुद्धनय और शुद्धनय अशुद्धनयेन घटशरावविशिष्टमृण्मात्रवत्सोपाधिस्वभावम्॥४६॥ शुद्धनयेन केवलमृण्मात्रवन्निरूपाधिस्वभावम्॥४७॥ आती हैं, उनसे इन व्यवहार-निश्चयनयों का कोई संबंध नहीं है, उन्हें इन पर घटित करना उचित नहीं है; क्योंकि ये नय तो भगवान आत्मा के अनन्तधर्मों में से एक-एक धर्म को विषय बनानेवाले एक-एक नय हैं॥४४-४५॥
व्यवहारनय और निश्चयनय की चर्चा के उपरान्त अब अशुद्धनय और शुद्धनय की चर्चा करते हैं - ___“आत्मद्रव्य अशुद्धनय से घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र के समान सोपाधिस्वभाववाला है और शुद्धनय से केवल मिट्टी के समान निरुपाधिस्वभाववाला है॥४६-४७॥" __ जिसप्रकार मिट्टी अपने सोपाधिस्वभाव के कारण घट, रामपात्र
आदि पर्यायों में परिणमित होती है और निरुपाधिस्वभाव के कारण मिट्टीरूप ही रहती है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा भी अपने सोपाधि स्वभाव के कारण रागादिरूप परिणमित होता हुआ अशुद्ध होता है
और निरुपाधिस्वभाव के कारण सदा शुद्ध ही रहता है। . अनन्तधर्मात्मक इस भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक अशुद्ध नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा विकारी भावरूप परिणमित होता है और एक शुद्ध नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा सदा एकरूप ही रहता है। इन अशुद्ध और शुद्ध धर्मों को सोपाधिस्वभाव और निरुपाधिस्वभाव भी कहते हैं। भावरूप परिणमित होना ही सोपाधिस्वभाव है और सदा एकरूपरहना ही निरुपाधिस्वभाव है।
इसप्रकार यह भगवान आत्मा अशुद्ध भी है और शुद्ध भी है।