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________________ क्रियानय और ज्ञाननय ११९ कोने में बैठे-बैठे बिना कुछ किये विवेक के प्रयोग से सहज ही उपलब्ध हो गया। उक्त उदाहरण के माध्यम से यहाँ ज्ञाननय को समझाया गया है। जिसप्रकार घर के कोने में बैठे-बैठे ही सेठ ने अपने विवेक के बल से मात्र मुट्ठी भर चनों में चिन्तामणि रत्न को प्राप्त कर लिया; उसीप्रकार ज्ञाननय से यह भगवान आत्मा विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है। तात्पर्य यह है कि ज्ञाननय से इस आत्मा की मुक्ति विवेक की प्रधानता पर आधारित है। __उक्त कथन का आशय यह कदापि नहीं है कि किसी को क्रिया से मुक्ति प्राप्त होती है और किसी को ज्ञान से। जब भी किसी जीव को मुक्ति प्राप्त होती है, तब दोनों ही कारण विद्यमान रहते हैं; क्योंकि अनन्त धर्मात्मक इस भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक क्रिया नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा अनुष्ठान की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है और एक ज्ञान नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है। इन क्रियाधर्म और ज्ञानधर्म को विषय बनानेवाले नय की क्रमश: क्रियानय और ज्ञाननय हैं। यद्यपि इस बात को विगतनयों की चर्चा में अनेक बार स्पष्ट किया जा चुका है कि यहाँ भिन्न-भिन्न आत्माओं की बात नहीं है अपितु एक ही आत्मा में उक्त दो-दो के जोड़ेवाले नयों को घटित करना है; तथापि 'प्रधानता' शब्द का प्रयोग कर यहाँ क्रियानय और ज्ञाननय के प्रकरण में तो अतिरिक्त सावधानी बरती गई है। ___ यहाँ 'क्रिया' या अनुष्ठान' शब्द से शुद्धभाव के साथ रहनेवाला शुभभाव एवं तदनुसार आचरण अपेक्षित है तथा 'विवेक' शब्द से शुद्धभाव अर्थात् निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपेक्षित है।
SR No.007195
Book Title47 Shaktiya Aur 47 Nay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2008
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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