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कर्तृनय और अकर्तृनय
११३ खड़ा-खड़ा वीतराग भाव से उसे कपड़ा रँगते हुए देख रहा हो - ऐसी स्थिति में यदि कपड़ा अच्छा रँगा जाये तो रँगरेज को प्रसन्नता होती है
और यदि अच्छा न रँगा जावे तो उसे खेद होता है; परन्तु वीतराग भाव से उसे देखनेवाले पुरुष को किसी भी स्थिति में न तो प्रसन्नता ही होती है और न खेद ही होता है; वह तो उसे साक्षीभाव से मात्र जानतादेखता ही रहता है।
उक्त स्थिति को उदाहरण बनाकर यहाँ कर्तृनय और अकर्तृनय समझाये जा रहे हैं।
जिसप्रकार रंगरेज कपड़ा रंगने की क्रिया का कर्ता है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा कर्तृनय से अपने में उत्पन्न रागादि परिणामों का कर्ता है, और जिसप्रकार कपड़ा रंगते हुए उस रंगरेज को वीतराग भाव से देखनेवाला अन्य पुरुष कपड़ा रंगने की क्रिया का कर्ता नहीं है, मात्र साक्षी ही है; उसीप्रकार यह भगवान आत्मा अकर्तृनय से अपने में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेषादि भावों का कर्ता नहीं है, केवल साक्षी ही है।
अनन्तधर्मात्मक इस भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक कर्तृ नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा अपने में उत्पन्न होनेवाले रागादिभावों का कर्ता होता है और एक अकर्तृ नामक धर्म भी है, जिसके कारण यह भगवान आत्मा अपने में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेषादि भावों का कर्ता न होकर मात्र ज्ञाता-द्रष्टा रहता है, साक्षी रहता है। भगवान आत्मा के इन कर्तृधर्म और अकर्तृधर्म को विषय बनानेवाले नयों को ही क्रमशः कर्तृनय और अकर्तृनय कहते हैं।
परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले ये दोनों ही धर्म भगवान आत्मा में एक साथ ही रहते हैं। स्थूल दृष्टि से देखने पर भले ही ये परस्पर विरोधी प्रतीत हों, पर इनके एक आत्मा में एकसाथ रहने में कोई विरोध नहीं है; क्योंकि अनेकान्तात्मक भगवान आत्मा का ऐसा ही स्वरूप है।