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४७ शक्तियाँ और ४७ नय (२६-२७) नियतिनय और अनियतिनय नियतिनयेन नियमितौष्ण्यवह्निवनियतस्वभावभासि ॥२६॥ अनियतिनयेन नियत्यनियमितौष्ण्यपानीयवदनियतस्वभावभासि॥२७॥
संक्षेप में कहा जा सकता है कि यह भगवान आत्मा ज्ञेयों को जानता तो है, पर न तो ज्ञान ज्ञेयों में जाता है और न ज्ञेय ज्ञान में ही आते हैं। दोनों अपने-अपने स्वभाव में सीमित रहने पर भी ज्ञान जानता है और ज्ञेय जानने में आते हैं। ज्ञाता भगवान आत्मा और ज्ञेय लोकालोकरूप सर्व पदार्थों का यही स्वभाव है।।
ज्ञाता भगवान आत्मा के उक्त स्वभाव का प्रतिपादन करना ही उक्त छह नयों का प्रयोजन है। ज्ञेयों को सहजभाव से जानना भगवान आत्मा का सहज स्वभाव है। अत: न तो हमें परपदार्थों को जानने की आकुलता ही करना चाहिए और न नहीं जानने का हठ ही करना चाहिए; पर्यायगत योग्यतानुसार जो ज्ञेय ज्ञान में सहजभाव से ज्ञात होजावें, उन्हें वीतराग भाव से जान लेना ही उचित है; अन्य कुछ विकल्प करना उचित नहीं है; आकुलता का कारण है। आत्मा के इस सहजज्ञानस्वभाव को ही ये छह नय अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।
उक्त छह नयों की चर्चा के उपरान्त अब नियतिनय और अनियतिनय की चर्चा करते हैं - ___ "आत्मद्रव्य नियतिनय से, जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है - ऐसी अग्नि की भाँति नियतस्वभावरूप भासित होता है और अनियतिनय से, जिसकी उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है - ऐसे पानी की भाँति अनियतस्वभावरूप भासित होता है।"
जिसप्रकार उष्णता अग्नि का नियतस्वभाव है; उसीप्रकार भगवान आत्मा का चैतन्यभाव - ज्ञानानन्दस्वभाव नियतस्वभाव है और जिसप्रकार उष्णता पानी का अनियतस्वभाव है; उसीप्रकार राग-द्वेषमोहरूप अथवा मतिज्ञानादिरूप परिणत होना आत्मा का अनियत