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________________ xoxiv प्रास्ताविक अहिंसाधर्म का प्रचार किया। पशुओं की हत्या न हो उसके लिए अमारि की घोषणा की और सभी प्रकार के जीवों को अभयदान दिया। कुमारपाल स्वयं विद्वान् था और उन्होंने सिद्धराज जयसिंह के समय से प्रारंभ विद्या-प्रवृत्ति के नैरंतर्य को बनाए रखा। पाटण में रहकर आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने राजा सिद्धराज की विनती से नूतन व्याकरण की रचना की, जो सिद्धहेमशब्दानुशासन के नाम से सुप्रसिद्ध है और राजा कुमारपाल की विनती से योगशास्त्र आदि ग्रंथों की रचना की। उन्होंने अनेक यात्रा संघों का नेतृत्व किया, जिनमें स्वयं भी सम्मिलित हुए। इस प्रकार गुरुओं के विचरण से, राजाओं की धर्मप्रियता के कारण एवं मंत्री जैसे उच्च स्थानों पर जैन श्रावकों के प्रशासन से पाटण में जैनधर्म का प्रभाव बढ़ा था। दुर्भाग्य से अहिंसाप्रिय राजा कुमारपाल के पश्चाद्वर्ती राजा अजयपाल ने राजगद्दी ग्रहण करते ही पूवों द्वारा निर्मित जिनालयों का विध्वंस किया। तभी से पाटण की अवनति का प्रारंभ हुआ। चौलुक्यवंशीय मूलराज, चामुंडराय, वल्लभराय, दुर्लभराय, भीमदेव, कर्णदेव, जयसिंह देव, कुमारपाल, अजयपाल, मूलराज, भीमदेव (द्वितीय) एवं त्रिभुवनपाल आदि राजाओं के पश्चात् पाटण की राज्यसत्ता का आधिपत्य वाघेलाओं को प्राप्त हुआ। वीरधवल वीसलदेव, सारंगदेव आदि वाघेला राजाओं ने पाटण पर अनुशासन तो किया, किन्तु आखिरी कर्णदेव के समय में मुस्लिम आक्रमण से पाटण का विनाश हुआ और गुजरात हमेशा के लिए पराधीन हो गया। पाटण जब अपनी समृद्धि के शिखर पर विराजमान था तब यहाँ अनेक प्रकार के प्रभावशाली कार्य हुए। ग्रंथनिर्माण, शिल्प-स्थापत्य, कला का विकास हुआ। अनेकानेक जिनमंदिरों का भी निर्माण हुआ, जिसमें पाषाण एवं धातुओं के मनोहर, प्रशमरस निमग्न, प्रशान्तभावों से युक्त जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई। किन्तु इन सभी प्रकार के कार्यों में से महत्तम एवं अधिकतर कृतिओं का इस्लामी आक्रमणों एवं शासनकाल में विनाश हुआ। आज हमारे पास इन सभी कार्यों के इतिहास के लिए प्रबन्ध साहित्य उपलब्ध है किन्तु प्रस्तुत साहित्य औपदेशिक कोटि का होने के कारण उसमें तथ्यांश बहुत अल्प है। अतः इतिहास को सर्वांशतः यथार्थ सत्य स्वरूप में प्राप्त करने के लिए ग्रंथों की प्रशस्ति, शिल्प-स्थापत्य, अभिलेख, दानपत्र, चैत्यपरिपाटी, रास-ग्रन्थों एवं धातुप्रतिमाओं के लेख आदि बहुत ही उपयुक्त सामग्री है। इस समग्र ऐतिहासिक साहित्य से तत्कालीन परिस्थितिओं एवं इतिहास पर प्रकाश पड़ता है। उत्तर मध्यकाल में पाटण की कुछ सीमा तक उन्नति हुई। उस काल के जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं की ऐतिहासिक जानकारी के लिए चैत्यपरिपाटी, तीर्थमाला एवं धातुप्रतिमा तथा पाषाण-प्रतिमा-लेख आदि प्रमुख साधन हैं। पाटण के जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं का वर्णन हमें ललितप्रभसूरि कृत चैत्यपरिपाटी में प्राप्त होता है। उन्होंने तत्कालीन जिनप्रतिमाओं एवं जिनमंदिरों की संख्या आदि का सुंदर वर्णन किया है। उस काल में 101 चैत्य एवं 99 गृहमंदिर थे, जिनमें कुल मिलाकर 8394 से अधिक जिनप्रतिमाएं विद्यमान थीं। पाटण के प्रत्येक मोहल्ले
SR No.007173
Book TitlePatan Jain Dhatu Pratima Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmanbhai H Bhojak
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages360
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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