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प्रास्ताविक
पाटण गुजरात के पुराने नगरों में से एक है। मध्यकाल के प्रारंभ में यही नगर गुजरात की राजधानी था एवं तत्कालीन भारत के प्रसिद्ध एवं समृद्धिशाली नगरों में उसकी गिनती होती थी। चावड़ावंशीय वनराज से निर्मित, चौलुक्य किंवा सोलंकी वंशीय नृपराजों से संवर्धित एवं सुसमृद्धित प्रस्तुत नगर अनेक सदियों तक गुजरात एवं भारत के इतिहास में केन्द्रस्थ रहा। सम्राट जयसिंह देव सिद्धराज एवं गुर्जरेश्वर महाराज कुमारपाल के शासनकाल में यहाँ विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों ने अपने-अपने धर्म का प्रचार एवं प्रसार किया। प्रजावत्सल एवं सर्वधर्मसमभाव से भावित इन सोलंकी नृपतिओं ने देश की उन्नति एवं प्रजा के सुख के लिए अथक प्रयास किए जो आज भी इतिहास के पृष्ठों पर अमर हैं । उस काल में जैन धर्मानुरागी राजाओं एवं प्रभावक जैनाचार्यों के प्रभाव से पाटण जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र बन चुका था। ऐसे सुप्रसिद्ध नगर का संक्षिप्त इतिहास यहाँ ज्ञातव्य है।
विक्रम संवत् (वास्तव में शक संवत) 802 (ईस्वी 880) के वर्ष में नागेन्द्रकुल के आचार्य शीलगुणसूरि के परम भक्त, शूरवीर, चावड़ावंशीय वनराज ने सांप्रत नगर की स्थापना की थी। नृपति वनराज कुशल राजनीतिज्ञ एवं धर्मवीर राजा था। स्वयं जैनधर्म का अनुरागी था और उनके शासनतन्त्र में जैन मन्त्री भी थे। शीलगुणसूरि (संभवतः शीलाचार्य) आदि जैनाचार्यों की विहारभूमि होने के कारण यह नगर जैनधर्म का केन्द्रस्थान बन गया था। उस समय पाटण का नाम अणहिलवाड़ वा अणहिल्लपत्तन था।
पूर्वकालीन चावडावंशीय राजाओं में इस नगर की धुरा वनराज, योगराज, रत्नादित्य, वैरिसिंह, क्षेमराज, चामुंडराज, राहड एवं सामंतसिंह ने संभाली। तत्पश्चात् राज्य चौलुक्यवंशीय राजाओं के हाथ में आया। चौलुक्यवंशीय नृपतिओं ने कालक्रमेण गुजरात की सीमा को उत्तर में मरुमण्डल और दक्षिण में कोंकण की सीमा तक विस्तृत किया था। इसी कारण प्रस्तुत शासनाधिपति महाराजाधिराज के नाम से जाने जाते थे। सिद्धराज जयसिंह एवं महाराज कुमारपाल इसी परम्परा के श्रेष्ठ भूपति थे। सिद्धराज स्वयं शैवधर्मी होते हुए भी जैनधर्म के मुनिओं एवं श्रावकों को सम्मान देता था एवं अपनी राजसभा में विद्वानों को सन्मान देता था, जिसके कारण अनेक जैन विद्वान् पाटण में आकर बसे थे। उनके मन्त्रीमंडल एवं दंडनायकों में शान्तुक, आशुक, सज्जन, आलिग, उदयनादि जैनधर्मी थे। पौर्णमिक धर्मघोष सूरि, हर्षपुरीय हेमचन्द्र सूरि, बृहद्गच्छीय वादिदेवसूरि, और पूर्णतलगच्छीय हेमचन्द्र सूरि जैसे महान् जैनाचार्य नगर को शोभायमान कर रहे थे। राजा कुमारपाल तो आचार्य हेमचन्द्र को अपने गुरु के रूप में स्वीकार करता था। आचार्य श्री के आदेश से एवं धर्म-संस्कारों के कारण पाटण में उन्होंने