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प्रास्ताविक
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में जिनमंदिर था। वहाँ के श्रावक श्रद्धावंत थे, जो प्रतिदिन जिनपूजा करते थे। कुछ प्रतिमाएँ विशेषकर धातुमय मूर्तियाँ बच गई हैं। इनमें से भी कालक्रमेण बहुत कुछ विलुप्त हो गया।
प्रतिमालेखों में प्रतिष्ठा-वर्ष, प्रतिष्ठापक आचार्य का नाम, आचार्य का कुल एवं उनकी परंपरा, प्रतिष्ठा कराने वाले एवं प्रतिमा निर्माण कराने वाले श्रावक के परिवार के नाम आदि का संक्षिप्त वर्णन प्राप्त होता है। ऐतिहासिक दृष्टि से आचार्यों का अस्तित्व काल, राजाओं का राज्यकाल, श्रावककुलों का इतिहास आदि निर्धारण करने में प्रस्तुत लेख सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम हैं। यथा आचार्य हरिभद्र नाम के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य कब हुए एवं इसी नाम के अन्य कितने आचार्य हुए, इन सब का पता हमें धातु या पाषाण-प्रतिमा-लेख-संग्रहों से प्राप्त होता है। इसलिए इस ग्रंथ में प्रस्तुत की गई सामग्री बहुत ही महत्वपूर्ण है। प्रस्तुत ग्रंथ में पाटण के सभी जिनमंदिरों के 1700 से अधिक जिन-धातु प्रतिमाओं के लेखों का संग्रह किया गया है। वर्तमानकालीन जिनपूजा-पद्धति में केशर-चन्दन पूजा होती है। दूसरे दिन जब प्रक्षाल होता है, उसके पूर्व वालाकूची का प्रयोग किया जाता है, जिससे जिनप्रतिमाओं का सर्वाधिक क्षय होता है और प्रतिमालेख जो इतिहास की धरोहर हैं, वे धीरे-धीरे नष्ट होने लगते हैं। आज अनेक धातुप्रतिमाओं के लेख नष्टप्रायः हो चुके हैं। प्रबुद्ध जैनों को इस विषय में सचिन्त होना चाहिए।
पं० श्री लक्ष्मणभाई भोजक भारतवर्ष के मध्यकालीन प्राचीनलिपि के प्रकांड विद्वान् हैं। उन्होंने भारत के अनेक ग्रंथ भंडारों को सुरक्षित एवं संमार्जित किया है। पांडुलिपियों का अध्ययन करके उनकी प्रतिलिपियाँ बनाई हैं तथा अनेक भंडारों की सूची भी तैयार की है। वे प्राचीन काल से लेकर आज तक की सभी लिपिओं के विशेष ज्ञाता हैं। स्वयं पाटण निवासी होने के कारण, पाटण के प्रति उनका विशेष लगाव है और पाटण के सभी मंदिरों में जाकर उन्होंने स्वयं धातुप्रतिमाओं के लेखों का संकलन किया है और हमारे सामने एक बहुत ही मूल्यवान् सामग्री प्रस्तुत की है, जिसके लिए हम उनके आभारी हैं। अन्त में मैं आशा करता हूँ कि इसी प्रकार अन्य नगरों के जिनमंदिरों की प्रतिमाओं के लेखों का पाठ और संकलन भी शीघ्र प्रकाशित होगा।
डॉ. जितेन्द्र बाबुलाल शाह
अहमदाबाद