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संपादकीय
श्रीनागेन्द्र कुल । संबंधे गच्छे पंचासरावि (घे? घे?)। श्रीशीलगणसूरि संताने शिष्य श्री देवचंद्रसूरिभिः ।। मंगलं महाश्रीः ।। शुभं भवत् ।। इस लेख से हमें "वनराजविहार" के पंचासरा पार्श्वनाथ तीर्थ का उल्लेख प्राप्त होता है। ____ आज का नया पाटण संवत् 1425 में बसा ऐसा कहा जाता है। परन्तु यह बात प्रामाणिक नहीं लगती। कारण यह कि संघपति देसल और समरासाह सं0 1371 में पाटण से संघ लेकर शत्रुजय गए थे, और उन्होंने शत्रुजय का उद्धार किया था। इससे ऐसा माना जा सकता है कि संवत् 1371 के पहले ही नया पाटण बसा हुआ होना चाहिए। ___ आज के पाटण में लगभग 150 पश्चात्काल के जिनमंदिर हैं। उनमें से कुछ शिखरयुक्त बन गए हैं। इनमें काष्ठकला के उत्तम नमूनों के उदाहरण निम्नलिखित हैं
1. कंभारी-पाडा 2. कपूर मेहता-पाडा 3. ढुंढेरवाडा 4. घिया-पाडा 5. मल्लात-पाडा
इन मंदिरों के गुम्बद काष्ठकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। कणासा-पाडे में शीतलनाथ-शांतिनाथ जी के मंदिर में श्री शत्रुजंय का पट काष्ठ में नक्काशी करके बनाया गया है।
वर्तमान पुस्तक में केवल पाटण के जैन मंदिरों में स्थित धातु प्रतिमाओं के तथा थोड़ी-सी पाषाण की पादुकाओं के ऊपर लिखे हुए लेख हैं। __जिस मोहल्ले के मंदिर में रखी हुई धातु प्रतिमाओं के लेख उतारे गए हैं, उनकी सूची परिशिष्ट 1 में दी गई है। लेख संख्या के साथ कोष्ठक में जो अंक दिया गया है, वह स्थानसूचक
इनमें अधिकांश जैन श्वेताम्बर धातु प्रतिमाओं के ऊपर लिखे हुए लेख हैं। ऐसा होने पर भी इन श्वेताम्बर मंदिरों में थोड़ी दिगम्बर मूर्तियाँ भी अवश्य हैं। उनके लेख भी इस पुस्तक में समाहित
ये लेख हमारे अग्रज बन्धु, श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर पाटण, के ग्रंथपाल श्री केशवलाल पूनमचंद भोजक ने मूर्तियों के ऊपर से उतारे थे। उन्होंने गुजराती लिपि में पद-शब्द अलग किए बगैर लिखे थे। उन लेखों के ऊपर पदों को अलग करने के चिह्न बनाकर हमारे भाई के पुत्र गुणवंत रसिकलाल भोजक से देवनागरी लिपि में उनकी प्रति कराई थी। मेरी ऐसी धारणा थी कि ये लेख जब अहमदाबाद में छपेंगे, उस समय प्रूफ़ में भूल सुधार कर ली जाएगी। परन्तु बी.एल. इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, दिल्ली में रखी हुई यह प्रति माननीय