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________________ संपादकीय उत्तर गुजरात में महेसाना जनपद में पाटण नाम का हिन्दुस्तान के प्राचीन और प्रसिद्ध नगरों में से एक शहर है। वर्तमान में पाटण एक स्वतंत्र ज़िला बन गया है। चावडावंश के वनराज नामक राजा ने इस नगर की स्थापना विक्रम संवत् (वस्तुतया शक संवत्) 802 में की थी। अपने मित्र अणहिल्लवाड भरवाड के नाम से उन्होंने इस नवस्थापित नगर का नाम अणहिल्लवाड रखा था। सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह तथा परमार्हत् राजा कुमारपाल के समय में अणहिल्लवाड पाटण की समृद्धि चरम सीमा पर पहुँच गई थी। उस समय पाटण में कितने जैन मंदिर थे, इसका कोई विश्वसनीय उल्लेख नहीं मिलता। किंवदंती है कि कुमारपाल के राज्य में प्रतिदिन एक जिनमंदिर का निर्माण होता था। आ० हेमचन्द्र के द्वयाश्रयकाव्य में सोलंकी राजाओं का तथा तत्कालीन अणहिल्लवाड पाटण का वर्णन दिया गया है। अणहिल्लवाड पाटण का अलाउद्दीन के सेनापति मलिक कफूर के द्वारा विक्रम संवत् 1356 में विध्वंस किया गया। पाटण.का अंतिम हिन्दू राजा कर्णवाघेल मारा गया। उसकी मृत्यु के पश्चात् ब्राह्मण तथा जैन मंदिरों का विध्वंस किया गया। ___ आज अणहिल्लवाड के ध्वंसाशेष पाटण की पश्चिम दिशा में अनावाडा नाम के छोटे से गांव में मिलते हैं। उसके खंडहरों में "सहस्रलिंग तालाब" "रानी की वापी" तथा "रानी का महल" इसके सिवाय कोई प्राचीन निशान नहीं बचा है। पुराने पाटण में से कुछ जैन मूर्तियाँ तथा उनके जो पट इत्यादि बच गए हैं, उनमें से नीचे लिखे अनुसार शिल्प एवं ताडपत्रीय पुस्तकें आज भी देखने को मिलती हैं। विक्रम संवत् 1100 से 1400 तक लिखे हुए ताडपत्र तथा कागज़ की पुस्तकें श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिर में सुरक्षित हैं। कलारवाडा में स्थित श्री शांतिनाथजी के मंदिर में भित्ति में जड़ा हुआ बावन जिनालय-नंदीश्वर-द्वीप संगमरमर पर विक्रम संवत् 1242 में प्रतिष्ठित हुआ है। उसके उपरान्त श्री पंचासरा के पार्श्वनाथ मंदिर में प्रवेश करते हुए बायीं बाजू में वनराज की मूर्ति के पास ठ० आसाक की मूर्ति के ऊपर निम्नलिखित लेख है: ___ "संवत् 1301 वर्षे वैशाखशुदि 9 शुक्रे पूर्व मांडलि वास्तव्य मोढज्ञातीय नागेन्द्रात्मज श्रे० केसव सुत श्रे० जाल्हण पुत्रेण श्रे० राज्ज कुक्षि समुदल्लभुतेन ठ० आसाकेन संसारसारतां गत्वा निजत्या-योपार्जित-वित्तेन अस्मिन् महाराज श्रीवनराजविहारे निजकीर्तिवल्ली विलासमडपःस (v) प्तः कारितः । तथा ठ० आसाकस्य मूर्तिरियं सुत ठ० अरिसिंहेन कारितां प्रतिष्ठिताः
SR No.007173
Book TitlePatan Jain Dhatu Pratima Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmanbhai H Bhojak
PublisherB L Institute of Indology
Publication Year2002
Total Pages360
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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